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शब्द
छमस्थ
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जघन्य कृष्टि ११९ दूरवर्ती १६-१८९
परिभाषा उत्पन्न हो; वह चूलिका है । ववन ११:१४० पूर्व निरूपित अनुयोग द्वारों में एक, दो प्रश्रवा सभी मनुयोगद्वारों से सूचित अर्थों को विशेष प्ररूपणा जिस सन्दर्भ के द्वारा की जाती है उसका नाम चूलिका है। धवल पु०७ पृ० ५७५ ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का नाम "छम" है । इस छष्य में जो स्थित रहते हैं, उन्हें छद्मस्थ कहते हैं । धवल १०।२९६; धवल ।।१९०; धवल ११८५ सबसे स्तोक अनुभाग बाली प्रथम कृष्टि ही जघन्य कृषिट कहलाती है । दूरवर्ती क्षेत्र में स्थित “दूर" कहलाती है। क्ष. सार ६११ एवं न्यायदीपिका पृ. ४१ कहा भी है-"स्वभाव विकी परमाणु प्रादि, काल विप्रकर्षी राम, रावण प्रादि प्रौर देश विप्रकर्षी हिमवान् प्रादि सूक्ष्म, अन्तरित एवं दूरार्थे माने गये हैं।" प्रा. मी. ५ ( कारिकाकार स्वामी समन्तभद्र ) पृ० ३५; ३४ अनु० मूलचन्दजी न्यायतीथं अत: हिमवान् पर्वत आदि "दूर" कहलाते हैं । (द्र अर्थात दूरवती) परन्तु पंचाध्यायो उ० श्लोक ४८४ में लिखा है कि राम, रावण, चक्रवर्ती (बलभद्र, अर्द्धचत्री, चश्री ) जो हो गये हैं और जो होने वाले हैं वे दूराथं । दूरवती) कहलाते हैं ( यथा-दूरार्धा भाविनोतीता रामरावर चक्रिरण:) मही बात लाटी. संहिता ४-८ पर लिखी है। फर्क इतना है कि पंचाध्यायी व लाटीसंहिता में काल की अपेक्षा दूर से "दूर" लिया है। परन्तु ऊपर प्रस्तुत ग्रन्थ में एवं प्राप्तमीमांसा में देश ( क्षेत्र ) की अपेक्षा दूर को "दूर" कहा है। पन्य कोई बात नहीं है। अर्थात् विवक्षित कर्मद्रव्य का परप्रकृतिरूप संक्रमण होकर क्षय होना । निकटतम प्रन्य कषाय की प्रथम संग्रह कृष्टि में विवक्षित कषाय के द्रव्यका संक्र. मए करना परस्यान संक्रमण कहलाता है। ज. घ. २१८३-८४ जो द्रव्य जिस कषाय में संक्रमण करता है वह उसी कपायरूप परिणमन कर जाता है। जो प्ररूपणा ऊपर से नीचे की परिपाटी से अर्थात् विपरीत कम से की जाती है उसे पर चादानुपूर्वी उपक्रम कहा जाता है । जैसे—मैं मोक्ष सुख की इच्छा से धर्ध. मान स्वामीको तथा शेष तीर्थकरों को भी नमस्कार करता हूं। यह प्ररूपणा । १. अर्थात् पहले बद्धं मान स्वामी को नमस्कार करता हूं। और विलोमक्रम से वर्षमान के बाद पाश्वनाथ को, पाश्र्वनाथ के बाद नेमिनाथ को; इत्यादि क्रम से शेष जिनेन्द्रों को भी नमस्कार करता हूं। (घ. ११७४; मूलाचार १०५) यह पश्चादानुपूर्वी है।
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परमुख क्षम परस्थान संक्रमण
१२०-१३६
पश्चादानुपूर्वी
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