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क्षपणासार
[ माथा १८२.१८३ वाले प्रदेशाग्रको जो विधि पहले कही गई है वहीं विधि शेष समयोंमें जानना चाहिए और यह क्रम बादरसाम्परायि कृष्टिके चरमसमयत क ले जाना चाहिए' ।
पढनादिसु दिस्त कम सुहुमेसु अणंतभागहीणकम । वादरकितिपदेसो असंवगुणिदं तदो हीणं ॥१८२॥५७३॥
अर्थ-सूक्ष्म साम्परायिककृष्टिकारकके प्रथमसमय में दृश्यमानक्रम सूक्ष्पकृष्टियोंमें अनन्तवेंभागहीनरूपसे घटता हुआ द्रव्य है, उसके अनन्तर बादर कृष्टि में असंख्यातगुणा तथा उसके पश्चात् अनन्तवें भागहीन द्रव्य है।
विशेषार्थ-बादरकृष्टियों के द्रव्यका असंख्यातवांभाग अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्पराविककृष्टिकारक कृष्टियों में दृश्यमान प्रदेशाग्न प्रथमसमय में इसप्रकार है-जघन्य. सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिमें दृश्यमान प्रदेशाग्र बहुत है, इससे आगे चरमसूक्षमसाम्परायिककृष्टितक प्रत्येककृष्टि में दृश्यमानद्रव्य पूर्वकृष्टिसे अनन्तवेंभागहीन है अर्थात् एक-एक चय घटता है । चरमसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिके अनन्तर ऊपर तृतीयवादरसंग्रहकृष्टिकी जघन्यबादरसाम्परायिककृष्टि में प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि बादरकृष्टियों के असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्नोंका अपकर्षण होकर सूक्ष्मकृष्टियोंकी रचना हुई है अत: सूक्ष्मकृष्टिप्रदेशानको अपेक्षा बादरकृष्टि में दृश्यमानप्रदेशाग्र असंख्यातगुणे हैं। उसके पश्चात् प्रत्येक बादरकृष्टिमें अनन्त-भाग-अनन्त भागहीन होता गया है अर्थात् अन्तरोपनिधामें एक-एक चय घटता गया है । यह श्रेणिप्ररुपणा सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारकके प्रथम. समयसे लेकर चरमसमयवर्ती बाद र साम्परायिककष्टिपर्यन्त करना चाहिए। प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिककृष्टियों में भी दृश्यमान प्रदेशाग्रकी यही श्रेणिप्ररुपणा है । पूर्वद्रव्य और निक्षिप्तद्रव्यके मिलने पर दृश्यमानप्रदेशाग्न होता है ।
*लोहस्सतदियादो सुहमगदं विदियदो दु तदियगदं ।
विदियादो सुहुमगदं दबं संखेज्जगुणिदकमं ॥१८३॥५७४।। १. जयषवल मूल पृष्ठ २१६६ से २२०१ तक । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १२७० से १२७५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०० । ३. जयघबल मूल पृष्ठ २२०१-२२०२ ।। ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६७ सूत्र १२७७ से १२७६ । घ० पु० ६ पष्ठ ४०० ।