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[ गाथा १९५
अर्थ — अपकर्षितद्रव्यका असंख्यातवां एकभाग गुणश्रेणि द्यायाम में दिया जाता है और शेष असंख्यात बहुभाग अन्तरस्थिति व द्वितीयस्थिति में दिया जाता है । अन्तरस्थिति से द्वितीयस्थितिको भाग देने से जो संख्यातशलाकारूप लब्ध प्राप्त हो उसका भाग असंख्यात बहुभाग द्रव्य में देनेसे जो प्राप्त हो उसका चतुरादि खण्ड में गुणा करनेपर जो द्रव्य प्राप्त हो वह द्रव्य समस्त अन्तर स्थितियों में निक्षिप्त किया जाता है और शेष बहुभाग प्रतिस्थापनावलिहोन द्वितीय स्थितियों में दिया जाता है। (नोट- यहां जो 'चतुरादि' संख्या दी गई है वह अष्टिकी अपेक्षा से है | )
क्षणासार
विशेषार्थ - - सूक्ष्मकृष्टियोंके द्वारा
अन्तर भर दिया जाता है अर्थात् पूर्ण कर दिया जाता है और एकरूप हो जाती है, तथापि अतिवृत्तिकरणगुणस्थानके चरमसमयकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीयस्थितिका भेद करके अन्तरका कथन किया गया है । अन्तरस्थितियों में अपकर्षित द्रव्य के असंख्यात बहुभागका संख्यातवां एकभाग दिया जाता है या संख्यातबहुभाग दिया जाता है इससम्बन्धमें दो मत हैं । इन गाथाओं के अनुसार असंख्यातवां भाग दिया गया है, किन्तु जयधवल मूल पृष्ठ २२०६ के अनुसार अन्तरस्थितियों में संख्यातबहुभाग दिया जाता है। जयधवल मूल पृष्ठ २२१० पर इन दोनोंमतों का उल्लेख कर दिया गया है । क्षपणासार बड़ोटोका ( शास्त्राकार) पृ० ६६७ पर जो अङ्कसन्दृष्टिश्रादि दो गई है उसका समर्थन जयधवल मूल (चारित्रक्षपणाधिकार ) आर्धग्रन्थ से नहीं होता अतः यहां नहीं दो गई । द्वितीयस्थिति में एक मोपुच्छहोव क्रम से प्रदेशास तबतक दिये जाते हैं जबतक एकसमयअधिक अतिस्थापनावली शेष रह जाती है । अतिस्थापनावली में द्रव्य नहीं दिया जाता' ।
अंतर पडम ठिदित्तिय असंखगुखिदक्कमेण दिज्जदि हु ।
दीपकमं संखेज्जगुगुणं हीणक्कमं तत्तो ॥ १६५॥। ५८६ ।।
अर्थ - अन्तरायामको प्रथमस्थिति पर्यन्त तो असंख्यातगुणं क्रमसे द्रव्य दिया जाता है और उसके ऊपर हीनक्रम से ( गोपुच्छ विशेषहीन ) द्रव्य दिया जाता है । उसके पश्चात् संख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है ।
१. जयधवल मूल प २२०९-२२१० ।
२. क० पा० सुत्त पृष्ठ ५७० सूत्र १३१३-१३१४ ।