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गाथा ३२४-३२६ ] क्षपणासार
[ २६७ है। पुरुषवेद सहित छह नोकषायकी प्रशस्तोपशामना नष्ट हो जानेसे अनुपशान्तभावमें संक्रमण, उत्कर्षण आदि होने लगते हैं। उससमय हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेद इन सात नोकषायोंके कर्माशोंका अपकर्षण करके पुरुषवेदको तो उदयादि गुण णिको करता है और छह नोकषायके कर्माशोंकी उदयावलिके बाहर मुगावे रिण करता है । बारहकषाय और सात नोकषायका गुणश्रोणि निक्षेप आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मोके गणन णिनिक्षेपके तुल्य होता है। शेष-शेषमें निक्षेप होता है अर्थात् गलितावशेष गुणवेरिण होती है | उदयरूप पुरुषवेद और सज्वलनक्रोधके द्रव्य को अपकर्षित करके उदय समयसे लगाकर और अन्य कषाय व नोकषायके द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिसे बाहर समयसे लगाकर गुणरिणायाम, अन्तरायाम, द्वितीयस्थितिमें निक्षेप होता है और सात नोकषायका अन्तरायाम पूरण होजाता है ।'
पुंसंजलणिदराणं वस्ता बत्तीसयं तु चउसट्टी।
संखेजसहस्साणि य तक्काले होदि ठिदिबंधो ॥३२४॥ , अर्थः- उतरनेवालेके पुरुषवेदके प्रथमसमयमें पुरुषवेदका ३२ वर्ष, संज्वलन - चतुष्कका ६४ वर्ष, तीन घातियाकर्मोका संस्था हजारवई, उससे नाम व गोत्रका संख्यातगुणा तथा उससे डेढ़गुणा स्थितिबन्ध वेदनीयकर्मका होता है ।
पुरिले दु अणुवसंते इत्थी उपसंतगोत्ति भद्धाए । संखाभागासु गदे ससंखवस्सं अघादिठिदिषंधों ॥३२५॥ णवरि य णामयुगाणं वीसियपडिभागदो हवे बंधो। तीसियपडिभागेण य बंधो पुण वेयणीयस्स ॥३२६॥
अर्थः-पुरुषवेदके उदयकालमें स्त्रीवेदका उपशम जबतक नष्ट नहीं होता उतनेकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होकर एकभाग प्रवशिष्ट रहनेपर अघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातहजार वर्षमात्र होता है ।
इतनी विशेषता है कि बीसिय नाम द्विक ( नाम-गोत्र ) का जितना स्थिति ___ बन्ध होता है उसके त्रैराशिक क्रमसे अर्थात् ड्योढ़ा तीसिय-वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध
१. जयधवल मूल पृ० १६०२ सूत्र ४५३ ।