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गाथा ३४८] क्षपणासार
[२७ - विशेषार्थ:-उपशमणि पर आरोहण करते हुए अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर चारित्रमोहकी २१ प्रकृतियों का सर्वोपशम करके उतरते हुए पुनः प्राप्त अपूर्वकरणगुणस्थानके अन्तिमसमयतक जो कालका प्रमाण, उसकालसे संख्यात गुरिणत कालतक लौटता हुआ अधःप्रवृत्तबारसके सा. द्वितीय भसार शस्यपदाने पालता है। अर्थात् उपशमनं रिग चढ़ने और उतरने में जितना काल लगता है उससे भी संख्यातगुणाकाल अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थानका काल है । इस गाथाके द्वारा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालका महत्त्व बताया गया है।'
तस्सम्मत्तद्धाएं असंजमं देससंजमं वापि ।
गच्छेज्जावलिछक्के सेसे सासणगुणं वापि ॥३४८॥ " अर्थ-इस द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके कालमें गिरकर असंयमको प्राप्त हो जावे 'अथवा देशसंयमको प्राप्त हो जावे अथवा छह प्रावलियोंके शेष रहनेपर सासादनगुरंगस्थानको भी प्राप्त हो जावे ।।
विशेषार्थ-उपशमश्रेणिसे उतरने के पश्चात् अप्रमत्त-प्रमत्त गुणस्थानमें भ्रमण करते हुए यदि अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानाबरण दोनोंप्रकारको कषायोंका उदय हो जावे तो असंयत नामक चतुर्थगुणस्थानमें तथा यदि मात्र प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होजावे तो देशसंयम नामक पंचमगुणस्थानमें अथवा देशसंयमसे असंयम को या असंयमसे देशसंयमको अर्थात दोनों गणस्थानोंको प्राप्त: हो जावे । अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके काल में उत्कृष्ट छह प्रावलियां और जघन्य एकसमय शेष रहने 'पर यदि परिणामोंके कारण अनन्तानुबन्धी कषायको संयोजना होकर. उदय हो जावे तो सासादनगुणस्थान में प्रा जावे। जिसने विसंयोजनाके द्वारा अनन्तानुबन्धी चतुष्क
को निःसत्त्व कर दिया है उसके भी परिणाम विशेषके कारण शेष कषायोंका द्रव्य . उसीसमय अनन्तानुबन्धी कषायरूपसे परिणमनकर अनन्तानुबन्धीकषायका उदय हो
जाता है और वह सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । यह श्री यतिवृषभाचार्यका १. ज. घ. मू. पृ. १६१५ सूत्र ५४१ । घ. पु.६ १.३३१: ध. पु ५ पृ. १४ पर प्रप्रमत्तगुणस्थानके मन्तरके कथनसे इस गाथाकी पुष्टि होती है। । .. :: ...
. . : १२. जयघवल मूल पृ. १६१६ सूत्र ५४२-४३ । .. . . .. ३. ज. प. पु. ४ पृ. २४; ज. प. पु. १० पृ. १२४ । । . . . . . .