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[ गाथा ३५४-६०:
धोदयसे श्रेणि चढ़े हुए उपशामकके पुनः गिरनेपर जितना मानवेदककाल है उतने प्रमाणकालसे मानोदयसे श्रेणि चढ़कर गिरनेपर मानको वेदनकर अनंतर समय में मानका वेदन करता हुआ एकसमयके द्वारा क्रोधको अनुपशांतकर अपकर्षण करता है । क्रोध. से चढ़कर गिरनेवाला क्रोधोदय में तीनप्रकारके कोधका अपकर्षणकर संज्वलनक्रोधको उदयादिगलितावशेष गुणश्रेणि करता है, किंतु मानसे श्रेणि चढ़कर गिरनेवाला मानवेदन काल में क्रोधका अपकर्षणकर संज्वलनक्रोध की उदयावलि बाहर गलितावशेष गुण रि हैं । इन दोनों में यह विभिन्नता है ।' अर्थात् मानके साथ चढ़नेवालेके प्रथमसमय करता प्रवेदी से लेकर जबतक कोधका उपशामनाकाल है तबतक विभिन्नता है तथा मानके साथ श्रेणि चढ़कर उतरनेवालेके मानको वेदन करते हुए तबतक विभिन्नता है जबतक क्रोधका अपकर्षण नहीं करता । क्रोधके अपकर्षण करनेपर क्रोधको उदयादि गुणश्र ेणी नहीं होती । मान ही वेदा जाता है। क्रोधकी उदयादि गुणश्रेणि नहीं है व मानका ही वेदन होता है ये दो नानात्व हैं । क्रोधके अपकर्षणसे लगाकार जबतक अधःप्रवृत्त संयत होता है तबतक ये विभिन्नताएं होती हैं ।
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क्षपरणासार
क्रोधकषाय के साथ उपशमश्र रिंग चढ़नेवाले के कोव, मान व मायाकी जितनी प्रथमस्थितियां होती हैं वे तीनों प्रथमस्थितियां यदि सम्मिलित कर दी जायें तो उतनी माया कषायके साथ उपशमश्रेणि चढ़नेवाले के माया कषायकी प्रथमस्थिति होती हैं
अन्तरकरण करने के प्रथमसमयमें मायाकी प्रथमस्थितिको करता है इस प्रथमस्थिति के अभ्यन्तर तीनप्रकारके कोषको और तीनप्रकारके मानको और तीनप्रकारको माया को यथाक्रम उपशमाता है । तदनन्तर लोभको उपशमाता है उसमें कोई अन्तर नहीं है । मायाके साथ उपशमश्रेणि चढ़कर उतरनेवाले के लोभके वेदनकालतक कोई विभिन्नता नहीं है । उसके पश्चात् विभिन्नता है । क्रोध के साथ श्रेणि चढ़कर उतरनेवाले मायाकी प्रथम स्थिति मायावेदककालसे श्रावलिप्रमाण अधिक ही होती है,
१. ज. घ. मूल, पृ० १६१६ सूत्र ५६१-६२ । २. सूत्र ५६७ ।
३. ज. घ. मूल पू. १६२१ सूत्र ५७२ ।
४. ज.ध. मूल १६२१ । क. पा. सुत्त पृ. ७२९-३०, ध. पु. ६ पृ. ३३३ ॥ ज. ध. मूल पु. १६२४ । ध. पु. ६ पृ. ३३४; क. पा. सुत्त पू. ७३० ।