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सपणासार
[ गाथा ३६२-६३ । वेदोदयसे चढ़नेवालेके समान जानना, किन्तु पुरुषवेदोदयवालेके' छह नो कषायके उपशामनाकालसे पुरुषवेदका उपशामनाकाल एकसमयकम दो आवलि अधिक है, क्योंकि एक समयकम दोग्रावलिकालमें पुरुषवेदके नवकबन्धको उपशमाता है। स्त्री वेदोदयसे श्रेणि चढ़नेवाला स्त्रीवेदकी प्रथमस्थितिको गलाकर तदनन्तर समयमें अपगतवेदी हो पुरुषवेदका प्रबन्ध होकर अन्तमुहर्तकालके द्वारा सात नो कषायोंको एक साथ उपशमाता है तथा सातों हो का उपशमनकाल तुल्य है । यह विभिन्नता है । इसीप्रकार स्त्रोवेदके उतरते समय भी कुछ दिले असा है सो शादका कहना चाहिए।"
संदुदयंतरकरणो संटद्धाणम्हि अणुवसंत से। इथिस्स य श्रद्धाए संडं इत्थिं च समगमुवसमदि ॥३६२।। ताहे चरिमसवेदो भवगदवेदो हु सत्तकम्मसे।
सममुवसामदि सेसा पुरिसोदयचडिभंगा हु ॥३६३॥
अर्थः-नपुसकवेदोदयसे उपशमश्रेणि चढ़नेवाला अन्तरकरणके पश्चात् नपुसकवेदको उपशमाता हुअा भी पुरुषवेदोदयवालेके नपुंसक-उपशान्तकालमें पूर्ण नहीं उपशमाता अतः जो अनुपशांत अंश रह जाता है उसको स्त्रीवेद उपशांतकालमें स्त्रीवेद के साथ उपशमाता हुआ सवेदभागके चरम समयको प्राप्त हो जाता है। अनन्तर अपगतवेदी होकर सातकर्मोको एक साथ उपशमाता है । शेष पुरुषवेदोदय सहित श्रेणि चढ़नेवालेके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-पुरुषवेदोदयसे उपशमश्रेणि चढ़नेवाला पूर्वमें नपुसकवेदको उपशमाकर तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा स्त्रीवेदको उपशमाता है। नपुसकवेदोदयसे चढ़नेवाला प्रथमस्थितिको करता है । जितना नपुसकवेद व स्त्रीवेद दोनोंका उपशामनाकाल है उतना प्रथमस्थितिका प्रमाण है। प्रथम स्थितिमें नपुसकवेदको उपशमाना प्रारम्भ करता है । पुरुषवेदवालेके जितना नपुंसकवेदका जितना उपशामनाकाल है उतनाकाल बीत जाता है तोभी नपुंसकवेदकी उपशामना समाप्त नहीं होती। १. पुरुषवेदी सवेदी होता हुअा ही सात कषायोंको उपशमाता है । (ज. प. मूल पृ. १९२४) २. दृश्यताम् ज.ध. मूल पत्र १६३० । ३. जयधवल मूल पृ. १९२४ ।