Book Title: Labdhisar
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 619
________________ पृष्ठ पंक्ति १३४ २० १३७ १४० १४० १४० १४१ १० असंख्यातवें भाग का घात करसा अनुभाग को नष्ट करने में कारणभूत यहां की है इसलिए द्वितीय समय में . विशुद्धियों की उसी प्रकार से प्रवृत्ति होने का नियम प्रसंख्यातगुणीहीन कृष्टियों का देखा जाता है । इसीप्रकार नाश करता है । इसीप्रकार प्राप्त होते हैं, जो कि प्रथम संग्रह प्राप्त होते हैं । प्रथम संग्रह कृष्टि वेदककाल विभाग कृष्टि वेदककाल के त्रिभाग से से कुछ अधिक है। कुछ अधिक है। उस संग्रहकृष्टि को उस संग्रहकृष्टि की चरमसमयवर्ती चरम समय में करता है, करता है । किन्तु अतिस्थापना प्रतिस्थापना सहिया अहिया प्रवयव कृष्टियों के द्रव्य का अवयव कृष्टियों का प्रऔर दव्य का द्वितीय कृष्टि में कृष्टियों का द्वितीय कृ ष्ट में संख्यातगुणा कृष्टियों का संख्यातगुणा चौदह गुणा हो गया । १ चौदह गुणा हो गया । १ इन अन्तरकृष्टियों के प्रदे धान का भी प्रल्पबहुत्व इसी प्रकार जानना चाहिए। प्रथमस्थिति शेष रह प्रथम शुद्ध स्थिति में समयाधिक मावली काल शेष रह अन्तर कृष्टियों के नीचे कृष्टि अन्तरों में बेद करके वेदन करके अपेक्षा असंख्यात अपेक्षा संख्यातविशेष कृष्टियों का अन्तर कृष्टियों का एक भाग प्रमाण द्रव्य दिया जाता है। एक भाग प्रमाण द्रव्य चढ़े गये अध्वान प्रमाण विशेषों से होन करके दिया जाता है। एक खण्ड द्रव्य जघन्य बादर एक खण्ड द्रव्य विशेषाधिक करके (चयाधिक करके) जघन्य दादर जाता तथा जाता है तथा दिया जाता है । इससे प्रागे दिया जाता है। पूर्वनिर्वतित कृष्टि को प्रतिपद्यमान प्रदेशाग्र का मसंख्यातवां भाग हीन दिया जाता है । इससे आगे अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारक अर्थ-लोभ की तृतीय संग्नहकुष्टि से जो द्वन्य सूक्ष्म कृष्टि रूप परिणत हुप्रा वह स्त्रोक है। उससे लोभ को द्वितीय संग्रह कृष्टि से जो द्रव्य लोभ की तृतीय संग्रह कृष्टिरूप परिणत हुमा वह संख्यातगुणा है । १४९ १५४ १५ १५५ १५ १५ २२ १५७ १

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