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प्रतिग्राह्य के अल्पबहुत्व के अनुसार अर्थात् प्रतिग्राह्य का अल्पवहुत्व करने वाले के क्रोध की होता है, अतः यहाँ पर
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ही होता है तथा बादरकृष्टिवेदन ने छायाम भी इतना है। अधिक, क्योंकि प्रवरहिया प्रसंख्यातगुरोहीन गुणसे हि होदि विसेसाहिर अछ वस्सट्ठि तत्प्रायोग्य संख्यातगुणा उदीपमान संख्यातवेंभाग को उदीम्मान स्थितिकाण्डकों को
शुद्ध उससे लोभ की द्वितीय संग्रहकृष्टि से जो द्रव्य सूक्ष्म कुष्टिरूप परिणत हुप्रा वह संख्यात गुगा है। विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्पराविककृष्टिकारक प्रतिग्रह के माहात्म्य के अनुसार ही अर्थात् प्रतिगृह्ममाए की प्रवृत्ति करने वाले के जो प्रदेशाग्र क्रोध की होता है, किन्तु लोभ की प्रथम संग्रह कृष्टि के इच्य का लोभ की द्वितीय तृतीय संग्रह कृष्टि में संक्रमण होता है प्रतः यहां पर ही होता था, वह भी रुक गया तथा बादरकृष्टिवेदन के मायाम भी सामान्म से इसना है। पिक है, क्योंकि प्रवरिया विशेष (चय) हीन गुरासेढिसीसए होदि, विसेसाहियं अवस्स हिदि तरप्रायोग्य संख्यात उदीयमान प्रसंख्मातवें भाग को उदीर्ण स्थितिकाण्डकों के यथाक्रम बीत जाने पर चरम स्थिति काण्डक को ऊपर पहले (पुरातन) ओ दिया जाता है, यहां प्रथम निषेक में दिया गया द्रव्य अनन्तर स्थिति में [तृतीय पर्व की प्रथम स्थिति में] देता है। दीयमान
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१७० १७०
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ऊपर जो दिया जाता है, यह द्रव्य अनन्तर स्थिति में देता है।
र
देयमान १७७ ११.१२ क्षीणकषायगुणस्थान के ऊपर और १७८१ पहिदे १७९ १७
तत्स्मृतम् १५० १० जिस काल में प्रश्वकएंकरण
पदिदै तत्संस्मृतम् जिस काल में चार कषायों का प्रश्वकर्णकरण