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गाथा ३१४-६० ]
क्षपणासार
htधोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेसे मानकी प्रथमस्थितिमें विभिन्नता क्यों हुई ?
समाधान-मानकी इतनी लम्बी प्रथम स्थिति के बिना नव नोकषाय, तीनप्रकारके क्रोध और तीनप्रकारके मानकी उपशामना क्रियामें समानता नहीं हो सकती थी । इसलिए मानोदयसे श्रेणि चढ़नेवाले के मानकी प्रथमस्थिति, क्रोधोदयसे श्ररिंग चढ़नेवालेके क्रोध और मानकी प्रथमस्थितिके सदृश; जहांकी तहां होती है । मानोदयसे श्रेणि चढ़नेवाले के इससे ऊपर शेष कषाय अर्थात् माया व लोभकी उपशामना विधि वही है ।
अब उपशमश्रेणिसे गिरनेवालेके विषय में विचार किया जाता है-मानकषायके उदयसे उपशमश्रं रिण चढ़कर उपशाला नागल ११ गुगास्थान में अन्तमुहूर्तकालतक ठहरकर गिरनेवाले जोवके जब कृष्टिगत व स्पर्धकगत तथा मायाका अपने-अपने स्थानपर वेदन करता है तबतक किंचित् भी नानापना ( विभिन्नता ) नहीं है, क्योंकि वहां पर वही पूर्वोक्त अवस्थित श्रायामवाला गुणश्रेणि निक्षेप व दोनों कषायों का अपने-अपने पूर्व वेदककालमें वेदन करता है ।'
उसके श्रागे मानका वेदन करनेवाले के विभिन्नता है । क्रोधोदयसे चढ़नेवाले व चढ़कर पुनः उतरनेवाले मानवेदकके अपने वेदककालसे कुछ अधिक अवस्थित गुणश्रेणि श्रथाम में निक्षेपणा होता है । क्रोधका श्रपकर्षण होनेपर बारह कषायोंकी ज्ञानावरणादि ahar गुण के सदृश प्रभार वाले गलितावशेष गुणश्र णि आयाम में विन्यास होता है, किन्तु मानोदयसे चढ़नेवाले व चढ़कर पुनः उतरनेवाले के तीन प्रकारके मानका अपकर्षरण होनेके अनन्तर ही नवकषायों का, ज्ञानावरणादि कर्मोकी गुराश्र शिके सदृश श्रायामवाली गलितावशेष गुणश्रेणिमें निक्षेप होकर अन्तरको पूरा जाता है, इतनी विभिन्नता है ।
जिस कषायोदयसे श्रोष्यारोह करता है उसी कषायको अपकर्षित करनेपर श्रन्तरको भरना व ज्ञानावरणादिकी गुण णिके तुल्य उदद्यावलिसे बाहर गलितावशेष गुण र निक्षेपका आरम्भ करता है । "
१. जयघवल भूल पृ० १६१७-१८ सूत्र ५४८-५५७ ।
२. ज.ध. मूल पृ. १६१६ सूत्र ५६० की टोका