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क्षपणासार
सम्भव है, क्योंकि विप्रतिषेधका अभाव है । '
करते हैं
[ गाया ३४६-४७
अथानन्तर अबरोहक प्रप्रमत्तके अधःप्रवृत्तकरण में संक्रम विशेषका कथन
करणे धावत अधापवत्तो दु संकमो जादो । विकादबंधाणे गट्ठो गुणसंकमो तत्थ ॥ ३४६ ।। अर्थ - गिरते हुए गुणसंक्रमण नष्ट हो जाता है और श्रथःप्रवृत्तसंक्रमण होने लगता है । अबन्ध प्रकृतियोंका विध्यात संक्रमण होता है ।
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विशेषार्थ -- श्रपूर्वकरणसे उतरकर अधःप्रवृत्तकरण में प्रवेश करनेपर प्रथम समय में गुणसंक्रमण व्युच्छित हो जाता है और बंधनेवाली प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रमण प्रारम्भ हो जाता है। जिन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता ऐसी नपुंसकवेद आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रमण होता है । अपूर्वकरण में गुणसंक्रमण होता है । परिणामों में विशुद्धिकी. हानि होनेके कारण अधःप्रवृत्तकरण में गुणसंक्रमण अर्थात् प्रत्येक समय में द्रव्यका गुणाकाररूपसे संक्रमण होना रुक जाता है और अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा भाजित द्रव्यका अधःप्रवृत्त संक्रमण प्रारम्भ हो जाता है। संज्वलनकषाय, पुरुषवेद आदि बंधनेवाली प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रमण होने लगता है । प्रबन्ध प्रकृतियोंके द्रव्यको विध्यांतभागहारका भाग देनेपर जो एकभागप्रमाण द्रव्य प्राप्त हो उतने द्रव्यका विध्यात संक्रमण होता है । '
Singe
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श्रथ दो गाषाओं में द्वितीयोपशमसम्यक्त्व के कालका प्रमाण कहते हैंचडणोदरकालादो पुवादो पुत्रगोति संखगुणं ।
कालं प्रधावतं पालदि सो उवसमं सम्मं ॥ ३४७ ॥ अर्थ--- द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसहित जीव चढ़ते हुए अपूर्वकरणके प्रथमसमय
से लेकर उतरते हुए अपूर्व करके अन्तिमसमयपर्यन्त जितनाकाल हुआ उससे संख्यात -:गुरगाकाल अधःप्रवृत्तकररणसहित इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको पालता है ।
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१. जयधवल भूल पृ० १६१४ सूत्र ५३८- ५३६ ॥
२. जयधवल मूल पू० १६१४६० पु० ६ पृ० ३३०-३३१० क० पा० सुत्त पु० ७२६ एवं घ० पु० ६ पृ० ४०६ ।