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क्षपणासार
[गाथा ३४३
हो जानेपर छठे भागके अन्तिमसमयमें निद्रा और प्रचला. इन दो प्रकृतियोंका बन्ध प्रारम्भ हो जाता है। निद्रा-प्रचलाका बन्ध प्रारम्भ हो जानेके पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर अपूर्वकरणके अन्तिम सप्तमभागको बिताकर श्रोणिसे उतरनेवाला अपूर्वकरणके चरमसमयको प्राप्त हो जाता है, उससमय पृथक्त्वलक्षकरोड़ सागर अर्थात् अन्तकोडाकोडीसागर स्थितिबन्ध हो जाता है । श्रेणिसे उतरनेवाले सभीके स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात नहीं होते ।' मात्र गलितावशेष आयामवाली गुणश्रेणि होती है, प्रतिसमये असंख्यातगुणाहीन" द्रव्य अपकषित होता है। तदनन्तर समयमें अनन्तगुरगोहीन विशुद्धिके कारण गिरकर अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हो प्रथम समयवतीं अधःप्रवृत्त हो जाता है । . . . . . ...... अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयमें अवस्थित गुणगिका निर्देश करते हैं
पढमो अधापवत्तो गुणसे ढिमवहिदं पुराणादो। -. :: ... ... ... . संखगुणं तच्चंतोमुहुत्तमेत्तं करेदी हु॥३४३॥ -
अर्थः--अधःप्रवृत्त करणके प्रथमसमयमें अवस्थित गुणश्रेणिको करता है जिसका आयाम पुरातनं गुणश्रेणियायामसे संख्यातगुणा होते हुए भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ।
विशेषार्थः-श्रेणिसे उतरनेवालेके अपूर्वकरणके अन्तिमसमयमें जितने प्रदेशाग्रका अपवर्तन हुआ था उससे असंख्यातगुणेहीन प्रदेशाग्रको 'अपकर्षित करके प्रथमसमयवर्ती अधःप्रवृत्तसंयत गुणश्रेरिण करता है। जो प्रथमसमय सूक्ष्मसाम्परायके द्वारा अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरणके कालसे विशेष अधिक आयाममै पुरातन गुणश्रेरिण निक्षेप द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मोंका निक्षेप हुआ था । अब उससे संख्यातगुणे प्रायामके द्वारा गुणोरिण विन्यास करता है, क्योंकि मन्दतर विशुद्धि के कारण सर्वत्र गुणश्रेणिआयाम फैल जाता है अर्थात् बढ़ जाता है । .. ... १. सम्बस्सेव भोदरमारणयस्स गरिय द्विदिघादो अणुभागधादो वा । जय धवल' मूल पृ० १९२६ ... एवं १९१३ । । - . . . . . . . . . . . .
. २. ज. प. मूल पृ. १९१३ सूत्र ५२६-५३३ । ३. ज. घ. मूल पृ. १९१४ सूत्र ५३६ । घ. पु. १२ पृ. ७८; त. सू. भ. सू. ४५ । क. पा. सु. प. ७२६; ध. पु. ६५. ३३० ।'