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गाथा ३४२) क्षपणासाय
[ २८१ विशेषार्थ:-तत्पश्चात् असंज्ञी के समान बंधसे आगे संख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण होनेपर उतरनेवाले अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समयको प्राप्त हुआ वहां मोहनीय, तीसिय ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीप, अन्तराय ) बोसीय (नामगोत्र) कर्मोका क्रमसे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमपृथक्त्वलक्ष सागरोंका और 3 भागप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। उसके अनन्तरवर्ती समयमें उतरनेवाले अपूर्वकरणको प्राप्त होता है।
अपूर्वकरणमें होनेवाले कार्य विशेषको कहते हैं-- उवसामणा णिवत्ती णिकाचणुग्घाडिदाणि तत्थेव ।
चदुतीसदुगाणं च य बंधो भद्धापवत्तो य ॥३४२॥
प्रयः-श्रेरिणसे उतरते हुए अपूर्वकरणगुणस्थानको प्राप्त होनेपर अप्रशस्तोपशामना, निधत्ति एवं निकाचना उद्घाटित-प्रगट हो जाते हैं और वहां पर क्रमश: चार, तीस व दो प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है। वहांसे गिरकर अधःप्रवृत्तकरणको प्राप्त हो जाता है।
विशेषार्थ:--अनिवत्तिकरणका काल समाप्त हो जानेपर गिरकर अनन्तर समयमें अपूर्वकरणमें प्रवेश करता है, उसीसमय अप्रशस्तोपशामनाकरण, निघत्ति. करण व निकाचनाकरण उद्घाटित हो जाते हैं, क्योंकि जो पूर्वमें अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके कारण उपशान्तभावसे परिणत थे अब अपूर्वकरण में प्रवेश होनेपर पुनः उद्भव हो जाता है। उस समय हास्य-रति, भय व जुगुप्साका बन्ध प्रारम्भ होनेसे मोहनीयकी नव प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है, उसीसमय हास्य-रति, अरति-शोकमें से किसी एक युगलका उदय होनेसे तथा भय व जुगुप्साका वैकल्पिक (भजनीय) उदय होनेसे इन छह नोकषायकी प्रागमसे अविरुद्ध पुनः प्रवृत्ति हो जाती है।' श्रेरिगसे उतरनेवालेके अपूर्वकरणके प्रथम सप्तमभागके चरमसमयमें पूर्वोक्त परभविक नामकर्म की देवगति, पंचेन्द्रियजाति प्रादि प्रकृतियोंका बन्ध परिणाम विशेषके कारण प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु पाहारकद्विक व तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध भजनीय है । उसके पश्चात् हजारों स्थितिबन्धोंके हो जानेपर अपूर्वकरणके सात भागोंमें अन्य पांच भाग व्यतीत
१५. पु. ६ पृ. ३३०; क. पा. सु. पृ. ७२५; जयघवल मूल पृ. १६१३ ।