________________
गाथा ३३४-३५]
क्षपणासार
[ २७५
जाता है और नाम-गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है। इससे भी बेदनीयकर्मका स्थितिबंध विशेष-अधिक होता है; क्योंकि परिणाम विशेषके कारण इसप्रकारके बन्धकी निर्वाधरूपसे सिद्धि होजाती है । उपशम श्रेरिण चढ़नेवालेके जिस स्थानपर नाम-गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातिया ( ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय ) कोंका स्थितिबन्ध एकसाथ असंख्यातगणा हीन हो जाता है, उस स्थानसे कुछ पूर्व उतरनेवालेके स्थितिबन्धमें उपर्युक्त परिवर्तन हो जाता है अर्थात् नाम-गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है।
शङ्का-यदि ऐसा है तो नाम-गोत्रकर्मके स्थितिबन्धसे तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक वृद्धिरूप क्यों होता है; असंख्यातगुणो वृद्धिरूप क्यों नहीं हो जाता?
धान-श्रेणिसे उतरनेवालेके सर्व स्थितिबन्धोंमें विशेष अधिकरूपसे वृद्धिको प्रवृत्ति होती है ऐसा नियम देखा जाता है । अथवा ऐसे नियमका निनिबन्धनपना नहीं है, किन्तु निबन्धनरूपसे यहां चूर्णिसूत्रको प्रवृत्ति हुई है ।
पुनः इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण होकर अन्तर्मुहूर्तकाल नीचे उतरकर वहां अन्यप्रकार के अल्पबहुत्व वाला स्थितिबन्ध होता है। अर्थात् इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध करके तत्पश्चात् एक साथ मोहनोयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है इससे नाम गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यानगुणा होता है। इससे ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होते हए विशेष अधिक होता है।
शङ्काः-पूर्व में ज्ञानावरणादि कर्मोके स्थितिबन्धसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता था, पुनः एक साथ वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध तीन घातियाकर्मों के स्थितिबन्धके सदृश कैसे हो गया ?
समाधान:-ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरङ्ग परिणाम विशेषके आश्रयसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध तीन घातियाकर्मोंके स्थितिबन्धके सदृश होनेमें विरोधका अभाव है। रिण चढ़नेवाला जिसस्थानपर ज्ञानावरणादिके स्थिति