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क्षपणासार
[ गाथा ३३४-३३५
असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा नष्ट होकर समयप्रबद्ध के असंख्यातलोक भागी ( असंख्यात लोकसे समय प्रबद्धको भाणित करने पर एक बार मान उहीरा वन होती है। उसोसमय मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक, घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा, वेदनीयकर्मका स्थितिबंध विशेष अधिक । स्थितिवन्धका जैसा अल्पबहत्त्व गाथा ३३० में कहा था वैसा ही अल्पबहुत्व यहां भी कहा गया है । विशेषता यह है कि पूर्व स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा स्थितिबन्ध बढ़ जाता है ।' .
कमकरणके नाशका विधान ७ गाथायोमें कहते हैं
तक्काले मोहणियं तीसीयं वीसियं च वेयणियं । मोहं वीसिय तीसिय वेयणीय कर्म हवे तत्तो ॥३३४॥ मोहं वीसिय तीसिय तो वीसिय मोहतीसयाण कर्म । वीसिय तीसिय मोहं अप्पाबहुगं तु अविरुद्धं ॥३३५॥
अर्थः-उसी काल ( समय ) में मोहनीय, तीसिया ( ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय ), वीसिया ( नाम-गोत्र ) और वेदनीय इस क्रमसे उसके पश्चात् मोहनीय वीसिय, तोसिय और वेदनीय' इस क्रमसे; उसके पश्चात् मोहनीय वीसिय और तोसिय इस क्रमसे; उसके पश्चात् वीसिय मोहनीय और तोसिय इस क्रमसे; उसके पश्चात् वीसिय, तीसिय, मोहनीय इन अल्पबहुत्व क्रमसे स्थितिबन्ध होता है ।
विशेषार्थ:-जिसकालमें समयप्रबद्धको असंख्यातलोक प्रतिभागी उदीरणा प्रवृत्त होती है, उससमय मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, शेष घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय ) कर्मोका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, इससे नाम-गोत्र का स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इस अल्पबहत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर और उपशमणिसे उतरनेवाला अन्तर्मुहूर्त नीचे उतर जाता है तब एक साथ मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक, नाम-गोत्रका स्थितिबन्ध असणांतगुणा हो जाता है और इससे तीन घातियाकमोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक और वेदनोयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । अर्थात् एक बार में ही नाम-गोत्रका स्थितिबन्ध तीन घातिया कर्मोसे नीचे आ १. जयघवल मूल पृ० १६०७-६ ।