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२७२ ] कापणासार
[गाथा ३३१ अर्थ:--लोभका असंक्रमण, छह आवलियां बीत जानेपर उदीरणा, मोहनीय का आनुपूर्वी संक्रमण ये नियम थे, किन्तु अधःपतन होनेपर इनसे विपरीत होने लगता है।
विशेषार्थः-ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानसे गिरनेवाले सभी जीवोंके छह प्रावलियोंके बीत जानेपर ही उदीरणा हो ऐसा नियम नहीं रहा, किन्तु बन्धावलि व्यतीत होनेपर उदीरणा होने लगती है। उपशमश्रोणि चढ़नेवालोंके यह नियम बतलाया गया था कि नवोन बंधनेवाले कर्मोकी उदीरणा बन्धके छह आवलि पश्चात् ही हो सकती है, उससे पूर्व नहीं, किन्तु श्रेणिसे उतरने वालेके लिए यह नियम नहीं रहा। उनके एक आवलिके पश्चात् ही बंधे हुए कर्मोंकी उदीरणा होने लगती है । कुछ प्राचार्य ऐसा व्याख्यान करते हैं कि ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरते समय भी जबतक मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तबतक छह प्रावलियों के व्यतीत होनेपर ही उदीरणाका नियम रहता है, किन्तु जहांसे मोहनीय कर्मका स्थितिबंध असंख्यातवर्षप्रमाण होने लगता है वहांसे छह श्रावलि पश्चात् उदीरणाका नियम नहीं रहता। परन्तु यह व्याख्यान चूणिसूत्र ४८१ के अनुरूप नहीं है। उपशामकके अंतरक्रिया समाप्तिकालमें जो यह मोहनीयका प्रानुपूर्वी संक्रमण व संज्वलन लोभके असंक्रमणका नियम हो गया था वह नियमभी श्रेगिसे उतरने वाले के अनिवृत्तिकरणकालसे लेकर नष्ट हो गया अब मोहनीयकर्मका अनानुपूर्वीसंक्रमण तथा लोभ का भी संक्रमण होने लगा।
शङ्का-उपशमश्रेगिसे उतरनेवालेके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके प्रथमसमयसे ही मोहनीयकर्मका अनानुपूर्वी संक्रमण क्यों नहीं कहा गया ?
समाधान नहीं कहा गया, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयकमंके बन्धका अभाव होनेसे मोहनीयकर्मका संक्रमण सम्भव नहीं है। इसीलिए सक्षमसाम्परायमें संज्वलनलोभका संक्रमण भी नहीं होता। जबतक तोन प्रकारको माया (सज्वलनमाया, प्रत्याख्यानमाया, अप्रत्याख्यानमाया) का अपकर्षण नहीं होता तब तक मोहनीयकर्म के अनानुपूर्वीसंक्रमणकी उत्पत्ति नहीं होतो, क्योंकि संज्वलन लोभके प्रतिग्रहका अभाव होनेसे संक्रमणकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है।' १. जयघवल मूल पृ० १६०६-७ ।