________________
क्षपणासार
२७८]
[ गाथा ३३६-३४० विशेषार्थः-जहांसे लेकर नाम-गोत्र श्रादि कर्मोका स्थितिबन्ध प्रथमबार असंख्यातवर्षका होता है वहांसे लेकर जबतक पल्यके असंख्यातभाग स्थितिबन्ध नहीं होता इस अन्तरालमें अन्य-अन्य स्थितिबन्ध पुनः पुनः असंख्यातगुणवद्धिसे बढ़ता है, क्योंकि वहांपर पर्यायान्तर असम्भव है । इस क्रमसे सातों ही कर्मोका स्थितिबन्ध एक साथ पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण होकर पल्पके संख्यातवें भागप्रमाण हो जाता है ।
शंका-श्रेरिण चढ़नेवालेके सातोंकर्मोंका दूरापकृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे हुआ था, किन्तु उतरनेवालके सातोंकर्मोंका स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवेंभागसे संख्यातवेंभागप्रमाण होना एक साथ केस सम्भव है।
समाधान-ऐसी शका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि श्रेणिसे उतरनेवाले के परिणाम-माहत्म्यसे सातकर्मोका एकसाथ पल्यके असंख्यातवेंभागसे पल्यके संख्यातवेंभाग होने में विरोधका अभाव है। इस स्थलसे लेकर आगे प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्य-अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुरिणत क्रमसे होते हैं, क्योंकि पल्यके संख्यातवें भाग स्थितिबन्ध होनेके पश्चात् संख्यातगुणवृद्धिके अतिरिक्त पर्यायान्तर असम्भव है ।'
मोहस्स य ठिदिबंधो पल्ले जादे तदा दु परिवड्डी। पल्लस्स संखभागं इगिविगलासएिणबंधसमं ॥३३६॥ मोहस्त पल्लबंधे तीसदुगे तत्तिपादमद्धं च । दुतिचाप्तत्तमभागा वीसतिये एयवियलठिदी ॥३०॥
अर्थः-मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध पल्यप्रमाण हो जानेपर स्थितिबन्धमें पल्पके संख्यातवेंभाग वृद्धि होती है । पुनः क्रमसे एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होजाता है । मोहनीयकर्मका पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होनेपर तीसिय ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय ) कर्मोका स्थितिबन्ध है पल्य अर्थात् पौन पल्य और दोकर्म ( नाम-गोत्र ) का स्थितिबन्ध अर्ध पल्यप्रमाण होता है । एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियकी स्थितिके समान स्थितिबन्ध होनेपर नाम-गोत्रका दो बटे सात (3) भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण, १. जय धवल मूल पृ० १६१० सूत्र ५१३-५१५ ।