________________
गाथा ३३२-३३३ ] क्षपणासार
[ २७३ विवरीयं पडिहरणदि विरयादीणं च देसघादितं। ... तह य असंखेज्जाणं उदीरणा समयपबद्धारणं ॥३३२॥ . लोयाणमसंखेज्ज समयपबद्धस्स होदि पडिभागो। .. ..
तत्तियमेत्तहव्वस्सुदीरणा वदे तत्तोः ॥३३३॥ - 'अर्थ:--- ( उपशमश्रेणिसे उतरनेवालेके ) वीर्यान्तरायादि कर्मोका देशघाति बन्ध होता था वह विपरीत होकर सर्वघाति होने लगा। असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणाका अभाव होकर एक समयप्रबद्ध के' असंख्यातलोकवें भाग मात्र द्रव्यको उदीरणा होने लगी।
' विशेषार्थ:-गाथा ३३० में कहे गए क्रम अनुसार संख्यातहजार स्थितिबन्धों के व्यतीत हो जाने पर वीर्यान्तरायकर्म अनुभागबन्धकी अपेक्षा सर्वांती हो जाता है। तत्पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे अभिनिबोधिक ( मति ) ज्ञानावरण और परिभोगअन्तरायकर्म सर्वघाति हो जाते हैं। तदनन्तर स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे चक्षुदर्शनावरण कर्म सर्वघाति हो जाता है। उसके पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे श्र तज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तरायकर्म सर्वघाती हो जाते हैं । तदनन्तर स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे मवधिज्ञानावरणोय, अवधिदर्शनाबरणोय और लाभान्तरायकर्म सर्वघाती हो जाते हैं। तत्पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायकर्म सर्वघाती हो जाते हैं । उपशमणि चढ़नेवाले के इन बारहकर्मोका अनुभागबन्ध जिस क्रमसे देशघाती हुअा था, उतरनेवालेके उसी क्रमसे पश्चादनुपूर्वी द्वारा देशघातिकरण नष्ट होनेपर सर्वघाति अनुभागबन्ध हो जाता है ।
. तत्पश्चात् सहस्रों स्थितिबन्धोंके व्यतीत हो जानेपर असंख्यात समय प्रबद्धों की उदीरणा नष्ट हो जाती है । उपशमणि चढ़नेवालेके हजारों स्थितिबन्ध बीत जानेपर एक समयप्रबद्धके असंख्यातलोकवें भाग उदीरणा असंख्यातगुणी वृद्धिको प्राप्त होकर प्राय और वेदनीयकर्मीको छोड़कर शेष सर्वकर्मोंकी उदीरणा असंख्यात समय प्रबद्ध होने लगे थी, श्रेणिसे उतरनेवालेके सर्वघाती अनुभागबन्धके पश्चात् पुनः १. एक समयप्रबद्धको असंख्यातलोकसे भाग देनेपर जो लब्ध मावे उतने प्रदेशासकी प्रसंख्यातलोकवें
भाग संज्ञा जानना।