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चारित्रमोहोपशामना परिशिष्ट अधिकार ।
कर्मों का उदय आदि ( उदय-उदोरणा ) परिणमन के बिना उपशान्तरूपसे अवस्थानको उपशाममा कहते हैं । वह उपशामना दो प्रकारको होती है—१. करणोपशामना २. अकरणोपशामना । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामोंके द्वारा कर्म प्रदेशोंका उपशान्तभावसे रहना करणोपशामना है अथवा करणोंकी उपशामनाको करणोपशामना कहते हैं। अप्रशस्त निधत्ति, निकाचित आदि 'पाठकरणोंको अप्रशस्त उपशामना द्वारा उपशान्त करना या उत्कर्षण आदि करणोंका अप्रशस्त उपशामनाके द्वारा उप
करणोपशामना है। इससे भिन्न लक्षणावली प्रकरणोपशामना है । प्रशस्त-अप्रशस्त परिणामों के बिना उदय-अप्राप्तकाल वाले कर्मप्रदेशोंके उदयरूप परिणामके बिना अवस्थित रहने को अफरणोपसामना कहते हैं। इसीका दूसरा नाम अनदीरणोपशामना है । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका आश्रय लेकर कोके होने वाले विपाक परिणामको उदय कहते हैं। इसप्रकारके उदयसे परिणतकर्मको उदोर्ण कहते हैं। इस उदीर्ण दशासे भिन्न ( उदयावस्थाको नहीं प्राप्त हुए कर्मोको ) दशाको अनदोर्ण कहते हैं। अनुदीर्ण कर्मकी उपशामनाको अनुवीर्णोपशामना कहते हैं, क्योंकि करणपरिणामकी अपेक्षा नहीं होती इसलिए इसको प्रकरणोपशामना भी कहते हैं। इसका विस्तारपूर्वक कथन कर्मप्रवाद नामक आठवें पूर्व में है ।
करणोपशामनाके दो भेद हैं-देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । अप्रशस्त उमशमकरणादि ( अप्रशस्तउपशमकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरणादि ) के द्वारा कर्मप्रदेशोंके एकदेश उपशान्त करनेको देणकरणोपशामना कहते हैं, किन्तु कुछ आचार्य कहते हैं कि देशकरणोपशामनाका इसप्रकार लक्षण करनेपर इसका
१. अदविहं ताव करणं । जहा-अप्पसत्य उक्सामणकरणं, णिवत्तीकरणं, रिणकाचणाकरणं बंधएकरणं, उदीरणाकरणं, प्रोकड्डणाकरण उक्कड्डयाकरणं संकमणकरणं च ।
(क. पा. सुत्त पृ. ७१२ सूत्र ३५८, ज. घ. मूल पृ. १५५४)