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२५८ ] क्षपणासार
[ गाथा ३१४ प्रमाण मध्यकी कृष्टि उदय में आती है तथा अवशिष्ट एकभागको पल्यके असंख्यातवें भागकी सहनानी पांचके अंकका भाग देने पर उसमें से दो भागमात्र तो प्रादि कृष्टिसे लेकर जो अधस्तनकृष्टि हैं वे अनुदयरूप हैं और तीनभाग मात्र अन्तिमकृष्टिसे लेकर जो ऊपरितनकुष्टि हैं वे अनदयरूप कृष्टि कही हैं, वे अपने स्वरूपको छोड़ कर, जो आदिकृष्टिसे लेकर अधस्तनकृष्टि हैं वे तो अनन्तगुणे अनुभागरूप परिणमित हो मध्यमकृष्टिरूप होकर उदय में आतो है । तथा अन्तिमकृष्टि से लेकर जो ऊपरितनकृष्टियां हैं वे अनन्तवेंभाग अनुभागरूप परिणमित हो मध्यमकृष्टिरूप होकर उदय में आती हैं । अंक संदृष्टि-माना कि उदयरूप निषेकमें १००० कृष्टि हैं उनको ५ का भाग देनेपर बहुभागप्रमाण ८०० मध्यकी कृष्टि तो उदयरूप है । अवशिष्ट एक भाग (२००) प्रमाणमें ५ का भाग देकर उसमेंसे एक भाग (४०) पृथक् रख, अवशिष्टके (१६०) दो भाग करके उसमें से एकभाग प्रमाण (८०) कृष्टि तो जघन्यकृष्टि से लेकर प्रध. स्तनकृष्टियां अनुदय लाए हैं वे कष्टियां अन भागवृद्धिके कारण मध्यमकृष्टिरूप हो परिणमनकर उदय में पाती हैं। तथा एक भागमें (८०) पृथक रखा हुआ (४०) भाग मिलानेपर (८०+४०) १२० कृष्टि हुईं। वे अन्तिमकृष्टिसे लेकर ऊपरितन कृष्टि अनुदयरूप हैं । वे अनुभाग घटनेके कारण मध्यमकृष्टिरूप होकर उदयमें पाती हैं ऐसा जानना चाहिए।
प्रथमसमय में अनुदयरूप ऐसी आदि कृष्टिको द्वितीयसमयमें पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर एकभागप्रमाण नवीनकृष्टियां अनुदयरूप की और प्रथमसमयमें अनुदयरूप ही अन्तिमकृष्टिको पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देनेपर एकभागप्रमाण कृष्टियोंको नवोन उदयरूप की। यहां उदयरूप की गई कुष्टियों के प्रमाणमें से अनदयरूप की गईं कृष्टियोंका प्रमाण घटानेपर जितना अवशिष्ट रहे उतने प्रमाणरूप प्रथमसमय सम्बन्धी उदयकृष्टियोंसे अधिक द्वितीयसमय में उदयकृष्टियां होती हैं । अंकसंदृष्टि द्वारा इसप्रकार कथन समझना---
प्रथमसमयमें उदयरूपकृष्टियां ८०० थीं, तब द्वितीयसमय में पहले उदयसे ऊपरितन' १२० कृष्टियां अनुदयरूप थीं, उनको ५से भाजित करनेपर लब्ध २४ प्रमाण ऊपरितन नवीनकृष्टियां उदयरूप हुई और प्रधस्तन कृष्टि (८०) में ५का भाग देनेपर लब्ध १६ प्रमाणकृष्टियां नवीन उदयरूप नहीं होती। अतः नवीन उदयरूप २४ में से