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गाथा ३११-३१२]
क्षपणासार
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क्योंकि उपशान्तकषायमें अवस्थित विशुद्धतारूप परिणाम रहता है ।
उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानका काल समाप्त होनेपर नियमसे उपशमकालका क्षय हो जाता है, अतः उपशान्तकषायसे पतन होता है। विशुद्धतामें होनाधिकताके कारण पतन नहीं होता है, क्योंकि वहां विशुद्धता अवस्थित है, होनाधिक नहीं है । कालक्षयके अतिरिक्त अन्य भी कोई कारण पतनका नहीं है।'
उपशान्तकषायसे गिरकर सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें पाये जीवका कार्यविशेष ४ गाथाओं में कहते हैं
सुहुमप्पविट्ठप्तमयेणछुवसामण तिलोहगुग्णसेढी ।
सुहुभद्धादो पहिया अवटिदा मोहगुग्णसेढो ॥३११॥
अर्थ:--उपशान्तकषायके पश्चात् सूक्ष्मसाम्पराय में प्रविष्ट हुआ, वहां प्रथम समयमें नष्ट हो गया है उपशमकरण जिनका ऐसी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनलोभको गुणश्रेणि प्रारम्भ होती है । इस गुणश्रेणियायामका प्रमाण, अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायकालसे एक प्रावलि अधिक है यहां मोहको गुणश्रेणिका आयाम अवस्थितरूप है ।
विशेषाय:-उपशान्तकषाय गुणस्थानसे गिरकर सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान को प्राप्त होने के प्रथमसमयमें अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन इन तीन प्रकारके लोभका द्वितोय स्थितिसे अपकर्षण करके संज्वलनकी उदयादि गुणश्रेणि की जाती है । कृष्टिगत लोभ वेदककालसे विशेष अधिक कालवाला गुणश्रेणि निक्षेप है । दोप्रकार अर्थात् प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरणलोभका भी उतना ही निक्षेप है, किन्तु उदयावलिसे बाहर निक्षेप होता है। तीनप्रकारके लोभका उतना उतना ही निक्षेप है अर्थात् अवस्थित गुणश्रेणि है। उसी समय अर्थात् प्रथमसमय में ही तोनप्रकारका लोभ एकसमय में हो प्रशस्तोपशामनाको छोड़ अनुप शान्त होजाता है ।'
उदयाणं उदयादो सेसाणं उदयबाहिरे देदि । छएहं बाहिरसेसे पुञ्चतिगादहियणिक्खेत्रो ॥३१२॥
१. ज.ध. मूल पृ. १८६१-६२। २. क. पा. सु पृ. ७१५, ज. प. मूल पृ. १८६२; घ. पु. ६ पृ. ३१८ ।