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गाया २२२-२२४ ] क्षपणासार
[ १८७ सत्तरहं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । वरचरणं उत्समदो खयदो दु चरित्तमोहस्स ॥२२२।।६१३॥
अर्थ-सातप्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व तथा चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयसे या उपशमसे उत्कृष्ट यथाख्यातचारित्र होता है ।
विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी चारकषाय व तीन दर्शनमोह (मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व) इन ७ प्रकृतियों के क्षयसे तत्त्वोंका यथार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व होता है सो क्षायिक सम्यक्त्व है । चारित्रमोहनोयकर्मको २१ प्रकृतियोंके उपशम या क्षयसे उत्कृष्ट चारित्र (यथाख्यात चारित्र) होता है जो निष्कषाय आत्माचरणरूप है । यद्यपि यहां क्षायिक यथाख्यात चारित्रका प्रकरण है तथापि उपशान्तकषायगुणस्थानमें भी यथाख्यातचारित्रका प्रसंग होनेसे उपशमयथाख्यातचारित्रको भी कह दिया है ।
केवली भगवान्के असातावेदनीयकर्मके उदयसे क्षुधादि परीषह पाये जाते हैं प्रतः उनके भी आहारादिक्रिया होती हैं इसप्रकारको शंका होनेपर उसके परिहार स्वरूप गाथा कहते हैं।
जं णोक सायविग्धचउक्काण बलेण दुक्खपहुदीणं । असुहपयडिणुदयभवं इदियखेदं हवे दुक्खं ॥२२३॥६१४॥
अर्थ--नोकषाय और अन्तरायचतुष्कके उदयके बलसे दुःखरूप असाताबेदनीयादि अशुभप्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियों के खेदरूप आकुलताका नाम दुःख है' और वह दुःख केवलीभगवान के नहीं पाया जाता है।
जं णोकसाय विग्धं च उक्काण बलेण साद पहुदीणं । सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोतं हवे सोक्खं ॥२२४॥६१५॥
अर्थ-नोकषाय और अन्तरायचतुष्कके उदय के बलसे सातावेदनीयादि शुभप्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियोंके संतुष्टिरूप कुछ निराकुलसुख भी केवलोभगवानके नहीं पाया जाता है । क्योंकि--
१. "सपरं बाहासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदियलद्धं तं सोक्खं दुःखमेव सदा ॥७६॥"
(प्रवचनसार)