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गाथा २१९.२२.]
क्षपणासार
[१८५ अघातियाकर्मों में विशेषता नहीं है तथापि घातकी अपेक्षा विशेषता होनेसे द्वितीय शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा क्षीणकषायके चरमसमय में घातियाकर्मों का निर्मूल क्षय हो जाता है । क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमय में घातियाकर्मोंके नाश का यह कथन उपपादानुच्छेद नयको अपेक्षासे है अन्यथा उस चरमसमयमें अन्तिमनिषेकका सत्त्व और उदय पाया जाता है । बन्धकी अपेक्षा इन घातियाकर्मोंका और जीवप्रदेशोंका एकत्वरूप परिण मन हो रहा था । बन्धके कारणोंके प्रतिपक्षी मोक्षके कारणभूत परिणामरूपयन्त्रके द्वारा पेलनेपर जीवप्रदेशोंसे कर्मप्रदेशोंका निर्मूल हो जाना क्षय है। जीवसे पृथक् हो जानेपर भी अकर्मभावसे परिणत कर्मपुद्गलोंका पुद्गलस्वरूपसे क्षय नहीं होता, जैसे मलसे व्यावृत्ति होनेपर कपड़ा निर्मल हो जाता है, किन्तु मलकी सत्ताका अत्यन्त विनाश नहीं होता वैसे ही प्रात्मा कर्मोसे निर्वृत्त होने पर परिशुद्ध हो जाता है' । पश्चात् अनन्तरसमयमें अनन्त केवल ज्ञान-केवलदर्शन और अनन्तवीर्यसे युक्त जिन, के वली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होकर सयोगिजिन हो जाते हैं।
खीणे घादिचउक्के णतचउक्कस्स होदि उप्पत्ती । सादी अपज्जवसिदा उक्कस्साणंतपरिसंखा ॥२१६॥६१०॥
अर्थ-घातियाकर्म चतुष्टयका नाश होने पर अनन्तचतुष्टयकी उत्पत्ति होती है, यह अनन्त चतुष्टय सादि व अपर्यवसित (अविनाशो) है तथा उत्कृष्ट अनन्त संख्यावाला है।
विशेषार्थ-सादि अर्थात् उत्पत्तिकाल में आदिसहित है तथापि अपर्यवसिता यानि अबसान-अन्तसे रहित होनेसे अनन्त है अथवा अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा इनकी उत्कृष्ट अनन्तानन्तप्रमाण संख्या है अत: अनन्त कहते हैं ।
किस कर्मके नाशसे कौनसा गुण होता है, सो प्रागे कहते हैं
आवरणदुगारण खये केवलणाणं च दसणं होदि । विरियंतरायियस्स य खरण विरियं हवे णतं ॥२२०॥६११॥
अर्थ-दोनों आवरणोंके क्षयसे केवलज्ञान व केवलदर्शन तथा वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे अनन्तयोर्य होता है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६८ ।