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क्षपणासार
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[गाथा २५७ रूपसे प्रास अर्थात् आत्मसात् हो जाता है, अन्यथा सयोग केवलीके परिपूर्ण गुण-शील होनेसे हमारे समान परमेष्टीपनेकी अनुत्पत्ति हो जावेगी।
समाधान- यह सत्य है, सयोगकेवली भी आत्मस्वरूपको प्राप्ति हो जानेसे अशेषगुणनिधान, निष्कलंक, परमोपेक्ष यथाख्यात विहार शुद्धिसंयमकी पाराकाष्ठाको प्राप्त हो जाते हैं । इसप्रकार अविकल स्वरूपसे सकल गुण-शील प्रगट हो जाते हैं, किन्तु सयोगअवस्थामें योग व आस्रवकी अपेक्षा निःशेषकर्मोंकी निर्जरा जिसका फल है ऐसा सकलसंबर उत्पन्न नहीं हुआ । प्रयोगकेवली के नि:शेष आस्रवद्वार निरुद्ध हो जानेसे निष्प्रतिपक्षस्वरूपसे आत्मलाभ प्राप्त हो गया है। अतः मात्र अयोगके वलीके हो शैलेश्यभाव अनुज्ञात होता है, इसमें दोपको कुछ भी अवसर नहीं है |
वाहत्तरिपयडीओ दुचरिमगे तेरसं य चरिमम्हि । झाणजलणेण कवलिय सिद्धो सो होदि से काले ॥२५.७॥६४८॥
अर्थ-अयोगकेवलीगुणस्थानके द्विचरमसमयमें (अनुदयरूप) ७२ प्रकृतियोंको तथा चरमसमयमें (उदयरूप) १३ प्रकृतियों को शुक्लध्यानरूपी अग्निद्वारा कवलित (प्रासीभूत ) करता है अर्थात नष्ट करता है और अनन्तरवर्तीसमयमें सिद्ध होता है ।
विशेषार्थ-अयोगकेवलीगुणस्थानका काल पांच ह्रस्वाक्षर (अ इ उ ऋ ल) के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना है। उसकाल में एक-एकसमय में एक-एक निषेकके गलनरूप जो अधःस्थितिगलन है उसके द्वारा क्षीण हुई अनुदयरूप ७२ प्रकृतियां द्विचरमसमयमें तथा चरमसमयमें उदयरूप १३ प्रकृतियां, शुक्लध्यानरूपी ज्वलन अर्थात् अग्नि के द्वारा कलित (नष्ट) होती हैं । इनमें अनुदयरूप वेदनीय, देवगति, ५ शरीर, ५ बंधन, ५ संघात, ६ संस्थान, ६ संहनन, ३ आंगोपांग, वर्णादि २०, देवगत्यानुपूर्वी,
१. जयधवल मूल पृष्ठ २२९२। २. "अयोगकेवलि गुणावस्थानकाल: शैलेश्यद्धा नाम । स पुनः पंचह्रस्वाक्षरोच्चारणकालावच्छिन्न
परिमाणेत्यागमविदां निश्चयः।" (जयधवल मूल पृष्ठ २२६३) ३. अत्रायोगीकेवलीद्विचरमसमये अनुदयरूपा वेदनीय-देवगति पुरस्सरा: द्वासप्ततिप्रकृतीः क्षपयति ।
चरमसमये च सोदय वेदनीय-मनुष्यायु-मनुष्यगतिप्रभृति कास्त्रयोदशाप्रकृती: क्षपयतीति प्रतिपत्तव्यम् । (जयधवल मूल पृष्ठ २२६३)