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गाथा २५६] क्षपणासार
[ २२१ होता, क्योंकि इससे चिन्तान्तरमें गमन नहीं होता। इसध्यानके फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमर (देव) सुख प्राप्त होता है; क्योंकि इससे मुक्तिको प्राप्ति नहीं होती। यद्यपि प्रथमशुक्लध्यान शुद्धोपयोग है, तथापि मोहनीयकर्मका उपशम होनेसे मुक्ति नहीं होती । क्षपकश्रेणिवालेके धर्मध्यानरूप शुभोपयोग मोक्षका कारण है, क्योंकि धर्मध्यानसे मोहनीयकर्मका क्षय होता है । उपशमश्रेणिवालेके शुक्लध्यानरूप शुद्धोपयोग मुक्तिका कारण नहीं है, क्योंकि मोहनीय कर्मका क्षय नहीं हुआ।
एकत्ववितर्कावीचार नामक द्वितीय शुक्लब्यानका कयन इसप्रकार है-एक का भाव एकत्व है, वितर्क द्वादशांगको कहते हैं और अबोचारका अर्थ असंक्रान्ति जिसध्यान में होती है वह एकत्ववितर्क अबोचारध्यान है । इस विषयमें कहा भो है
यतः क्षोणकषायजीव एक ही द्रव्यका किसी एक योगके द्वारा ध्यान करता है इसलिए उस ध्यानको एकत्व कहा है। यत: वितकका अर्थ श्रुत है और यतः पूर्वगत अर्थमें कुशल साधु इसध्यानको ध्याते हैं इसलिये इसध्यानको सविसकं कहा गया है । अर्थ व्यंजन और योगोंके संक्रमका नाम बोचार है, उस दोचारके अभावसे यह ध्यान अवीचार है । अर्थात् जिसके शुक्ललेण्या है, जो निसर्गसे बलशालो है, स्वभाव से शूर है, वनवृषभसंहननका घारी किसी एक संस्थानवाला है, चौदहपूर्व-दसपूर्व या नोपूर्वघारी है, क्षायिकसम्यग्दृष्टि है, और जिसने समस्त कषायवर्गका क्षयकर ऐसा क्षोणकषायोजीव नौपदार्थों में से किसी एक पदार्थ का द्रव्य, गुण और पर्यायके भेदसे ध्यान करते हैं । इसप्रकार किसी एक योग और एक व्यंजन (शब्द) के आलम्बनसे यहां एकद्रव्य, गुण या पर्याय में मेरुपर्वतके समान निश्चल भावसे अवस्थित चित्तवाले असंख्यातगुणश्रेणि क्रमसे कर्मस्कन्धों के गलाने वाले अनन्तगुणी श्रेणि क्रमसे कर्मों के अनुभागको शोषित करनेवाले और कर्मों को स्थितियों को एक तथा एकशब्दके अवलम्ब नसे प्राप्त हुए ध्यानके बलसे घात करनेवाले उनका अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत होता है। सदनन्तर शेष बचे क्षीणकषायके कालप्रमाण स्थितियोंको छोड़कर उपरिम सर्वस्थितियों की उदयादि गुणोणिरूपसे रचना करके पुनः स्थितिकाण्डकघात बिना अधःस्थितिगलवा द्वारा ही असंख्यातगुणश्रेणिक्रमसे कर्मस्कन्धोंका घाव करता हुआ क्षीणकषायके अन्तिम
१. धवल पु० १३ पृष्ठ ७७ से ७६ । २. धवल पु०१३ पृष्ठ ७६ गाथा ६१-६२-६३ ।