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क्षपणासार
गाथा २५५-५६]
[ २१५ रह जाती है । इसप्रकार सयोगकेधलीगुणस्थानका पालन करके उसके कालकी परिसमाप्ति हो जाती है तथा उससे अनन्तरसमयमें अयोगीजिन हो जाता है।
तुरियं तु समुच्छिण्णं किरियं झायदि अजोगिजिणो ॥२५५॥६४६॥ 'सीलेसिं संपत्तो विरुद्धणिस्सेसासवो जीवो। बंधरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥२५६॥६४७।।
अर्थ--अयोगीजिन समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्याते हैं तथा शैलेश्यभावको प्राप्त करके निःशेष (सम्पूर्ण) आत्रत्रका निरोधकर बन्धरूपी रजसे मुक्त होकर योगरहित फेवली हो जाते हैं।
नियोषार्थ-समुचिरन्न प्रति लच्छेद हुआ है मन-वचन-कायरूप क्रियाका जहां तथा निवृत्ति (प्रतिपात) से रहित अथवा मोक्षसे रहित होनेसे जो अनिवृत्त है ऐसा यह ध्यान सार्थक नामवाला है । यहां भी ध्यानका उपचाररूप कथन पूर्वोक्तप्रकार हो जानना, क्योंकि यथार्थतया तो एकाग्रचितानिरोध ही ध्यानका लक्षण है जो कि केवलीभगवानके सम्भव नहीं है । समस्त आस्रवसे रहित केवलीभगवानके अवशेषकर्मनिर्बरामें कारणभूत स्वात्मामें प्रवृत्तिरूप ध्यान ही पाया जाता है । इसप्रकार सयोगगुणस्थानके अनन्तर पश्चात् अन्तमुहर्तकालतक अयोगकेवली होकर शैलेश्यभगवान अलेण्याभावको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् योगनिरोध हो जावेसे योगजनित लेश्याका भो अभाव हो जाता है।
शंका-शैलेश्य किसे कहते हैं ?
समाधान--शीलका ईश (स्वामी) भीलेश है, उस शोलेशका भाव शैलेश्य कहलाता है । समस्त गुणशीलके अधिपतित्वको प्राप्त कर लिया है यह इसका अर्थ है ।
शङ्का यदि ऐसा है तो इस विशेषणका यहां आरम्भ नहीं होना चाहिए । भगवत् अर्हत्परमेष्ठीके सयोगकेवली अवस्था में समस्त गुण-शोलका आधिपत्य अविकल
१. धवल पु० १ पृष्ठ १६६, पंचसंग्रह १.३०, जीवकाण्ड गाथा ६५, विशेषकथनके लिए अष्टसहस्री
पृष्ठ २३६-३७ एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड भी देखना चाहिए। २. कम्मरय इति पाठान्तर। ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२६२-६३ ।