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क्षपणासार
[ गाधा २५२ वेदन करते हैं, क्योंकि प्रतिसमय मध्यमकृष्टि प्राकारसे परिणमन करनेवाली कृष्टियोंको असंख्यातगुणितभावसे प्रवृत्ति होती है।
शा--प्रथमादि समयों में यथाक्रम जिन जोवप्रदेशों की कृष्टियां केवलीके द्वारा अनुभव की गई है वे जीवप्रदेश द्वितीयादि समयों में निष्कम्परूपसे प्रयोगभावको प्राप्त हो जाते हैं ऐसा क्यों नहीं स्वीकार करते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि एक जोव में सयोग और अयोगपर्यायकी अमरूप (युगपत्) प्रवृतिका विरोध । प्रति समय ऊपर व नीचेको असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टि असंख्यानगुरिंगत श्रेणिरूपसे मध्यमकृष्टिआकाररूप परिणमन करके नाशको प्राप्त होती हैं, यह सिद्ध हो जाता है । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकालपर्यन्त कृष्टिगतयोगका अनुभव करनेवाले सूक्ष्मकाययोगी के बलोके ध्यानका कथन आगे करते हैं।
किट्टिगजोगी झाणं झायदि तदियं खु सुहुमकिरियं तु । चरिमे असंखभागे किट्टीणं णासदि सजोगी ।।२५२॥६४३॥
अर्थ-सूक्ष्म कृष्टिवेदक सयोगोजिन तृतीय सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति नामक शुक्लध्यानको ध्याता है। सयोगीगुणस्थानके चरमसमयमें कृष्टियों के असख्यातबहभागप्रमाण मध्यकी जो कृष्टि अवशेष रहीं उनको नष्ट करता है, क्योंकि इसके अनन्तर अयोगो होना है।
विशेषार्थ- सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त सूक्ष्मतर काययोग जनित क्रिया अर्थात् परिस्पन्द पाया जाता है और अप्रतिपाती अर्थात् अध:प्रतिपातसे रहित है इसलिए उस ध्यानका सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती नाम सार्थक है और इसका फल योगनिरोध अर्थात् सूक्ष्मतर कायपरिस्पन्दनका भी वहां निरन्वयरूपसे निरोध हो जाता है । यद्यपि सकलपदार्थ विषयक प्रत्यक्ष निरन्तर ज्ञानीके एकाग्नचिन्तानिरोध लक्षण रूप ध्यान असम्भव है इसलिए ध्यान की उत्पत्ति नहीं है तथापि योगका निरोध होनेपर कर्मास्त्रकका निरोधरूप ध्यान फल को देखकर उपचारसे के वलीके ध्यान कहा है । अथवा छद्मस्थों के चिताका कारण योग है इसलिए कारणमें कार्यका उपचार करके योगको भी चिता कहते हैं,
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१. जयघवल मूल पृष्ठ २२६६-६० ।