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[ गाथा २४८-२५१ जीवप्रदेशोंका गुणकार अविभागप्रतिच्छेदों के गुणकारसे असंख्यातगुणा है जो श्रेणिके असंख्यात वभागप्रमाण है । अर्थात् अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणासम्बन्धी जीवप्रदेशोंका और एकaiके अविभागप्रतिच्छेदों का परस्परगुणा करने से जो प्रमाण बाता है वह चरमकृष्टिसम्बन्धी जोवन देशोंका और एकवर्गके अविभागप्रतिच्छेदों के परस्पर गुणनफल से असंख्यात गुरगाहोन है, क्योंकि चरमॠष्टिसे असख्यातगुणेहीन जीवप्रदेश आदिवर्गणा में दिये जाते हैं । श्रणिके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियां हैं तथा पूर्वस्पर्धक भी श्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, किन्तु पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी एकगुणहानिस्थानान्तर में स्पर्धकुशलाकाके असंख्यात भागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं। एक स्पर्धकसम्बन्ध वर्गणाओं के असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियां हैं जो अपूर्वस्पर्धकोंके असंख्यात वैभागप्रमाण हैं । इसप्रकार एक अन्तर्मुहूर्त कृष्टिकरणकाल है ' ।
क्षपणासार
पुचफडप विद्दि व संजलणे ।
एत्थापुव्व विहाणं बादरकिहिविहिंवा करणं सुहुमाण किट्टीणं ॥ २४८ ॥ ६३६ ॥
अर्थ – योगोंके अपूर्वस्पर्धक करने का विधान जैसे पहले संज्वलनकषाय के अपूर्वस्पर्धक करने का विधान कहा है उसोप्रकार जानना तथा योगोंको सूक्ष्मकृष्टि करने का विधान भी पहले कहे हुए संज्वलनकषायकी बादरकृष्टि करने के विधान सदृश हो
जानना ।
किट्टीकरणे चरमे से काले उभयफढये सव्वे |
णासेदि मुहु तु किट्टीगद वेदगो जोगी ॥ २४६ ॥ ६४० ॥ पढमे असंखभागं टुवरिं गासिदू विदियादी | हेदुरिमसंखगुणं कमेण किहिं वियादि ॥ २५२ ॥ ६४१ ॥ मझिम बहुभागुया किहिं वक्विय विसेसहीएकमा । पडिलमयं सत्तीदो असंखगुणहीणया होंति || २५१ ।। ६४२ ।।
अर्थ –— कृष्टिकरणकालके चरमसमय के अनन्तर काल में सर्व पूर्व- अपूर्वस्पर्धक - रूप प्रदेशोंको नष्ट करता है तथा अन्तर्मुहूर्तकाल में कृष्टिको प्राप्त योगका अनुभव
१. जयघवल मूल पृष्ठ २२८७ से २२८६ ।