________________
क्षपणासार
गाया २२६]
[ १९t केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों प्रकाश एफ हैं ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्यपदार्थको विषय करनेवाला साकारोपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग है और अन्तरङ्गपदार्थको विषय करनेवाला अनाकारोपयोग अर्थात् दर्शनोपयोग है । "अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुवगमादो । तं कथं णवदे ? अणायारत्तगहाणुयवत्तीदो।" अर्थात् अन्तरङ्गपदार्थको विषय करनेवाले उपयोगको दर्शन स्वीकार किया है। यदि दर्शनोपयोगका विषय अन्तरङ्गु पदार्थ न माना जाय तो वह अनाकार नहीं बन सकता । इसप्रकार विषयभेद होनेसे दोनों उपयोगों का कार्य भिन्न-भिन्न है अतः कोई भी उपयोग व्यर्थ नहीं है।
यदि दर्शनका सदभाव न माना जावे तो दर्शनावरणकर्म के बिना सात ही कर्म होंगे, क्योंकि आवरण करने योग्य दर्शनका अभाव मानदेपर के सावरकका सदुभाव मानने में विरोध आता है । दर्शन है, क्योंकि सूत्र में आठकर्मों का निर्देष किया गया है । यह भी नहीं कह सकते कि दर्शनावरणका निर्देश केवल उपचारसे किया गया है, क्योंकि मुख्य वस्तुके अभाव में उपचारको उत्पत्ति नहीं बनती ।
वीर्यान्तरायकर्मका निमल क्षय हो जानेसे अनन्तवीर्य की उत्पत्ति होती है जो परिश्रमसे उत्पन्न होनेवाली थकावटका विरोधी है तथा अप्रतिहतसामर्थ्यवाला है, अन्तरायरहित है वह अनन्तवीर्य कहा जाता है। भगवान् अशेष (समस्त) पदार्थोको विषय करनेवाले ध्र वउपयोगरूप परिणामवाले हैं अर्थात् भगवान् तिरन्तर ध्र वरूपसे समस्त पदार्थोको जानते हैं तथापि उवको खेद नहीं होता यह अनन्तवीर्य का उपग्रह (उपकार) है और यही उसकी उपयोगिता है। उस अनन्तवीर्यके बलाघानबिना सान्ततिक उपयोगकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अन्यथा हम जैसे इनस्थोंके उपयोगके समान उस उपयोग (केवलोके उपयोग) की सामर्थ्य का विरह (अभाव) होने से अनवस्थाका प्रसंग आ जायेगा । कहा भी है--
१. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३५८ । २. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३३७ । ३. जयधवल पु. १ पृष्ट ३५८-५९ ।
४. धवल पू० ७ पृष्ठ ६८ ।