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क्षपणासास
गाथा २१३-२१४ ]
[ १७६ 'उपशान्तकषायो अथवा क्षीणकषायी पूर्वोके ज्ञाता तीनों योगवालेके, शुक्ल-.. लेश्यायुक्त एवं उत्तमसंहननवाले के प्रथम शुक्लध्यान होता है। प्रथमशुक्ल ध्यान के समान ही द्वितीयशुक्लध्यान भी जानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि द्वितीय शुक्ल ध्यान एकयोगवाले के होता है । क्षीणकषायीके यह द्वितीय शुक्लध्यान ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तरायकर्मका निरोध करने के लिये होता है।
'कोहस्स य पढमठिदीजुत्ता कोहादि एक्कदोतीहि ।
खवणद्धाहिं कमसो माणतियाणं तु पढमठिदी ॥२१३॥६०४॥ माणतियाणुदयमहो कोहादि गिदुतियं खवियपणिधम्हि । हयकरणकि टिकरणं किच्चा लोहं विणासेदि ।।२१४॥६०५॥
अर्थ-क्रोधको प्रथमस्थितिसहित क्रोधादि एक-दो-तीन कषार्योंका सपणाकाल क्रमसे मानादि तीनकषायोंकी प्रथम स्थिति होती है। मानादि तोनकषायोसहित श्रेणी चढ़नेवाला जीव क्रमसे क्रोधादि एक-दो-तीन कषायोंके क्षपणाकालके निकट अश्वकर्णसहित कृष्टिकरणको करके लोभको नष्ट करता है ।
विशेषार्थ- अन्तरकरणसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायपर्यन्त अबतक जो प्ररुपणा की गई है वह पुरुषवेदके उदयसहित संज्वलनक्रोधके उदयवाले क्षपकको प्ररुपणा है, किन्तु
१.. "शान्त-क्षीणकषायस्य, पूर्वज्ञस्य त्रियोगिन:। शुक्लाद्यं शुक्ललेश्यस्य, मुख्यं संहननम्य तत् ॥१॥
द्वितीयस्याद्यवत्सवं विशेषस्त्वेकयोगिनः । विघ्नावरणरोधाय क्षीणमोहस्य तत्स्मृतम् ।।२।।
(जयधवल मूल पृष्ठ २२६६) २. "एयत्तविपक्क-अवीयार-झारणस्स अप्पडिवाइविसेसणं किण्ण कदं ? ए, उवसंतकसायम्मि
भवद्धा खएहि कसाएसु रिणबदिदम्मि पडिवादुवलंभादो।" [धवल पु० १३ पृष्ठ 11 एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान के लिये 'अप्रतिपानी विशेषण क्यों नहीं दिया ? समाधान-नहों. क्योंकि उपशांतकषाय जीवके भव तप और काल क्षयके निमित्त पुनः कषायोंको प्राप्त होनेपर एकत्ववितर्क-अविचार ध्यानका प्रतिपात देखा जाता है। धवल पु० १३ के इस प्रमाणसे सिद्ध होता है कि उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवेंगुणस्थानमें भी एकत्ववितर्फ-अवोचार नामक दूसरा
शुक्लध्यान होता है। ३. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६० से ८९२ सूत्र १५०२ से १५३४; धवल पु. ६ पृष्ठ ४०७; जयघवल
मूल पृष्ठ २२५५-५६ ।