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गाथा १९८] क्षपणासाय
(१६७ अर्थ-घरमस्थितिको काण्डकायामले गुमाकरके उसमें विशेष () व्य मिलाने से परमफालिका द्रव्य होता है उसका संख्यातवांभाग अन्तरस्थितियों में देता है और बहुभाग सर्वस्थितियों में देता है ।
विशेषार्थ-द्वितीयस्थितिके प्रथमनिषेक में एककम द्वितोयस्थितिमायामप्रमाण विशेष घटानेपर उसके चरमनिषेकका द्रव्य होता है, उससे लेकर नीचेके काण्ड कायामात्र निषेकोंका द्रव्य अन्तिमफालिमें ग्रहण करता है उससे उस अन्तिमनिषेकके द्रव्यको काण्डकायामसे गुणा करने पर वहां अधस्तन निषेकमें जो विशेषअधिक पाया जाता है उनको मिलानेपर अन्तिमफालिके सर्वद्रव्य का प्रमागा होता है इसमें अधस्तन निषेकोंका अपकर्षण किये हुए द्रव्यको जोड़नेपर जो दृष्य होता है उसको पल्यके असंख्यातवेंभागका भागदेकर एकभागको गुणश्रेणी आयाम में देनेके पश्चात् अवशिष्ट द्रव्यके संख्यातवेभागको अन्तरायामको स्थितियों में और शेष बहुभागको द्वितीयस्थितिकी स्थितियो में गोपुच्छाकाररूपसे एक-एक चयरूप हीन द्रव्य देता है।
अंतरपढमठिदिति य असंखगुणिदक्कमेण दिज्जदि हु। होणं तु मोह विदियट्ठिदिखंडयदो दुघादोत्ति ॥१६८॥५८६॥
अर्थ- सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें मोहनीयकर्म सम्बन्धो द्वितीयस्थितिकाण्डकघातसे लेकर द्विचरमकाण्डकघातपर्यन्त अन्तरायामकी प्रयमस्थितिपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है तथा उसके ऊपर एक-एक चयरूप हीनद्रव्य दिया जाता है ।
विशेषार्थ--मोहकर्मके द्वितीयस्थितिकाण्डकघातसे लेकर द्विचरमकाण्डकघात. पर्यन्त काण्ड कसे गृहोत स्थितिसे नीचे और उदयावलिसे ऊपर जो निषेक हैं उनके द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्य ग्रहणकरके पुनः उसको पल्यका असंख्यात्तवेंभागका भागदेकर एकभागको पूर्वोक्तप्रकार गुणश्रेणियायाम में प्रथमउदयनिषेकमें तो स्तोकद्रव्य तथा द्वितोयादि निधेकोंसे गुणश्रेणिशीर्षपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । अवशिष्ट बहुभागमात्रद्रव्य को गुणश्रेणिसे ऊपरको स्थितियों में दिया जाता है । गुणश्रेणिके ऊपरवर्ती निषेकों में जो द्रव्य देता है वह गुणश्रेणीशीर्ष में दिये गए द्रव्य से असंख्यात गुणा है। इसप्रकार अन्तरके प्रथमनिषेक पर्यन्त तो असंख्यातशुणे क्रमसे तथा उसके ऊपर एक-एक विशेष (चय) रूप घटते क्रमसे द्रव्य दिया जाता है। यह क्रम प्रतिस्थापनावलि प्राप्त होनेतक पाया जाता है। सर्वस्थिति