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कापणासार
[गाथा १८७-१८८ लोहस्स विदिय कि हि वेदयमाणस जाव पढमटिदी। श्रावलितियमवसेसं आगच्छदि विदियदो तदियं ॥१८७॥५७८॥
अर्थ-इसप्रकार लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिको वेदते हुए जीवके द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी प्रथमस्थिति में तीनआयलीप्रमाण काल शेष रहने तक द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसंग्रहकष्टि में द्रव्य संक्रमण रूप होकर प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ-लोभकी द्वितीय संग्रह कृष्टिको प्रथमस्थितिमें विश्रमणावलि, संक्रमणावलि व उच्छिष्टावलि ये तीनों अशिष्ट रहनेतक लोभको द्वितोयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टि में दिया जाता है, क्योंकि तृतीयसंग्रहकष्टि में संक्रमित हुआ द्रव्य विश्रमणावलि पर्यन्त वहीं विश्राम करता है पश्चात् संक्रमणावलि में सूक्ष्मकृष्टिरूप होकर संक्रमण करता है तब उच्छिष्टावलिमात्र प्रथमस्थिति अवशेष रह जावे उससे तीन मावलि अवशेष रहनेतक द्वितीयसंग्रहकृष्टि का द्रव्य तृतीयसग्रहकृष्टि में संक्रमित होता है तथा उसके ऊपर द्वितीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्य में अपक्षणभागहारका भाग देकर एकभागप्रमाण द्रव्यका संक्रमणद्वारा सूक्ष्म कृष्टि में ही संक्रमण करता है। यह क्रम जबतक दो आवलिप्रमाण काल अवशेष रहे तबतक जानना, वहीं आगाल व प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति होती है । आनुपूर्वीसंक्रमणके कारण तनीयसंग्रहकष्टिका द्रव्य द्वितीयष्टि में न आनेसे आगाल नहीं होता मात्र प्रत्यागाल हो होता है तथा समयकम
आवलिप्रमाण निषेकोंको अधोगलनरूप क्रमसे भोगकर समयाधिक आवलि अवशेष रखता है।
तत्तो सुहमं गच्छदि समयाहियावलीयसेसाए । सम्वं तदियं सुहुमे णव उच्छिटुं विहाय विदियं च ॥१८८॥५७६॥
अर्थ-वादरलोभकी प्रथम स्थिति में एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर लोभकी ततीयसंग्रहकष्टिका सर्वद्रव्य सूक्ष्म कृष्टिरूप संक्रमण कर जाता है । नयकसमय. प्रबद्ध व उच्छिष्टावलिके द्रव्य को छोड़कर लोभको द्वितीयसंग्रहकृष्टिका शेषद्रव्य भी सूक्ष्मकृष्टिरूप संक्रमण कर जाता है ।
विशेषार्थ-इसक्रमसे लोभको द्वितीयकृष्टिको वेदन करनेवालेके जो प्रथमस्थिति है उस प्रथम स्थिति में जब एफसमयाधिक आबलिकाल शेष रह जाता है उस