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क्षपणासार
[ गाथा १६७ विशेषार्थ--मानको प्रथमसंग्रहकष्टिका बेदक चरमसमयसे अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थिति में से मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि के प्रदेशाग्रको अपकर्षित करके उदयादि गुणश्रेणिरूपसे प्रथमस्थिति में क्षेपण करता है और द्वितीयसंग्रहकष्टिको उसी विधिसे वेदन करता हुआ जबतक प्रथमस्थितिमें एकसमय अधिक प्रावलिकाल शेष रहता है तबतक पूर्वोक्त विधिसे सत्र कार्य करता हुआ चला जाता है। प्रथमस्थिति शेष रह जानेपर मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है, उससमय तीन संज्वलनकषायोंक स्थितिबन्ध स्थान भटकर अन्त हूतकम ४० दिन अर्थात् १ मास १० दिन और स्थितिसत्त्व यथाक्रम घटकर अन्तर्मुहूर्त कम ३२ माह अर्थात् २ वर्ष ८ माह रह जाता है । इसप्रकार स्थितिबन्ध तो १० दिन और स्थितिसत्त्व माठमाह घट जाता है । यह सब पैराशिक विधिसे सिद्ध कर लेना चाहिए' ।
'तदियस्स माणचरिमे तीसं चउवीस दिवसमासाणि । तिरहं संजलणाणं ठिदिषंधो तह य सत्तो य ।।१६७॥५५८।।
अर्थ-उसके पश्चात् मानको तृतीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है, उसके चरमसमय में तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम ३० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तमुहूर्तकम २४ माहप्रमाण होता है ।
विशेषार्थ-मानकषाय की द्वितीयसंग्रहकृष्टिके वेदककालके घरमसमयके अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थितिसे मानको तृतीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशानका अपकर्षणकरके पूर्वोक्तप्रकार प्रथमस्थिति करता है और उसी विधिसे मानकी तृतीयसंग्रहकृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है उसमें एकसमयाधिक आवलिप्रमाणकाल शेष रहनेतक पूर्वोक्त सर्वकार्य करता हुआ चला जाता है और जब एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर मानका चरमसमयवर्ती वेदक होता है तब तीनों संज्वलनकषायों (मान, माया व लोभ) का स्थितिबन्ध यथाक्रम घटकर ३० दिन अर्थात् एकमास और स्थितिसत्त्व भी यथाक्रम घटकर २४ मास अर्थाद परिपूर्ण २ वर्ष रह जाता है। यहां भी घटनेका काल राशिकविधिसे सिद्ध कर लेना चाहिए।
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१६१-६२ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ५६० सूत्र १२.४ से १२०८ । धवल पु० ६१० ३६४ | ३. जयघवल मूल प २१६२ ।