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गाथा १६६]
क्षपणासाब
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अर्थ-क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टिको जिस विधीसे वेदता है उसी विधिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदन करता है। मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि वेदक के चरमसमयमें संज्वलन त्रयका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम ५० दिन और स्थितिसत्त्व अन्त मुहूर्त कम ४० माह होता है।
विशेषार्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जिस विधिसे अग्रकृष्टि आदि असंख्यातवेंभाग उपरिमकृष्टियोंका प्रतिसमय अपवर्तनाघात करता है उसीप्रकार भानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको वेदन करनेवाला कृष्टियोंका अपवर्तनाघात करता है । क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जिस विधिसे बध्यमान प्रदेशाग्रसे और संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे अन्तरकृष्टिके अन्तरालोंमें और संग्रहकष्टिके अन्तरालोंमें यथासम्भव अपूर्वकृष्टियोंकी रचना करता है उसी विधिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि का वेदक अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है तथा क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदक जिसप्रकार कृष्टियोंके बन्ध व उदयसम्बन्धी प्रतिसमय अनन्तगुणे होनरूपसे अपसरणोंको करता है उसीप्रकार मान की प्रथमसंग्रहकृष्टि का वेदक अपसरणोंको करता है । इन करणों में तथा अन्यकरणों में कोई अन्तर नहीं है। मारकी प्रथा परामकृष्टिनेटका के इस प्रकार प्रथमस्थिति क्षीण होते हुए जब एकसमयअधिक आवलि काल शेष रह जाता है तब जघन्य उदीरणा होती है और मानकी प्रथमसंग्रहकुष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है। तीन संज्वलनका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व यथाक्रम घटकर स्थिति बन्ध तो अन्तर्मुहूर्त कम ५० दिन अर्थाद एकमाह २० दिन एवं स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम ४० माह अर्थात् ३ वर्ष चारमाह रह जाता है । यह पूर्वोक्त श्रराशिक विधिसे प्राप्त कर लेना चाहिए।
'विदियस्स माणचरिमे चत्तं बत्तीस दिवसमासाणि । अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो तिसंजलणगाणं ॥१६६।५५७।।
अर्थ-इसके अनन्तर मानको द्वितीय संग्रहकृष्टिका वेदक होता है और उसके चरमसमय में तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तमुहर्तकम ४० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम बत्तीसमासप्रमाण है ।
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१६०-६१ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६० सूत्र १२०० से १२०३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४ ।