________________
पाथा १७२-१७३ ] क्षपणासार
[ १४६ 'लोहस्स पढमचरिमे, लोहस्संतोमुत्त बंधदुगे। दिवस पुधत्तं वासा, संखसहस्साणि घादि तिये ॥१७२।५ ६३॥ सेसाणं पयडीणं, वासपुधत्तं तु होदि ठिदिबंधी । ठिदिसत्तमसंखेज्जा, वस्त्राणि हवंति णियमेण ॥१७३॥जुम्मा५६४॥
अर्थ-लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके चरमसमयमें लोभका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अन्तम हतप्रमाण है और तीन घातियाकर्मोंका स्थिति बन्ध पथक्त्व दिवस तथा स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाण है । शेष तीन अघातियाकोका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व और स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष होता है ऐसा नियमसे जानना ।
विशेषार्थ--संज्वलनमायाकी तीनसंग्रहकृष्टियोंका बेदककाल यथाक्रम परि. समास होनेपर अनन्तरवर्तीसमय में द्वितोयस्थितिमें स्थित लोभ की प्रथमसंग्रहकष्टि में से प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके उदयादि गुणश्रेरिणरूपसे क्षेपणकर अपने वेदककालसे आवलिअधिक काल प्रमाण प्रथम स्थितिको करता है । लोभवेदकके सर्वकालके त्रिभागसे कुछअधिक अथवा बादरलोभवेदककालके आधेसे कुछअधिक प्रथमस्थितिका काल होता है । उसी पूर्वोक्त विधानसे लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिको अन्तरष्टियोंके असंख्यातबहभागकी उदीरणा होती है और उससे विशेषहीन कृष्टि योंका बन्ध होता है, प्रतिसमय कृष्टियोंके बन्ध व उदयसम्बन्धी निवर्गणाकरण अर्थात् अनन्तगुणीहानिरूपसे अपसरण होता है, अनुभागसत्त्वका प्रतिसमय अपवर्तनाघात होता है, बध्यमान व संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे अन्तरकृष्टियों के नीचे तथा संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंको रचना होती है। इस विधिसे लोभकी प्रथमकृष्टिको वेदता हुआ जब प्रथम स्थितिमें एक समयाधिक आवलिकाल शेष रह जाता है उससमय जघन्य उदीरणाका तथा चरमसमयवर्ती वेदक होता है
और संज्वलन लोभका पूर्वबद्ध स्थितिबन्ध यथात्राम घटकर मात्र अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, तथैव स्थितिसत्त्व भी घटकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही शेष रहता है, किन्तु यह अन्तर्मुहूर्त स्थितिबन्धके अन्समुहूर्तसे संख्यातगुणा है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय, इन सोन घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वसे घटकर दिवसपृथक्त्व और स्थितिसत्त्व संख्यात. हारवर्ष रहता है। नाम, मोत्र व वेदनीय, इन तोन अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध
१. क. पा. सुप्त पृष्ठ ८६१-६२ सूत्र १२२५ से १२३२ । धवल पु० ६ पृष्ट ३६६ ।