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गाथा १७६-७७
क्षपणासार
प्रथं-उन सूक्ष्म कृष्टियोंका अवस्थान लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके नीचे है स्था वे सूक्ष्मकृष्टियां क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके समान होती हैं ।
विशेषार्थ- सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंका अवस्थान लोभको तृतीयसंग्रह कृष्टिके नीचे है, क्योंकि अनन्तणितही अनुभागसे परिमित की गई हैं। रे सूक्ष्मष्टियां संज्वलनक्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि के समान ही हैं। जैसे क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टि शेष संग्रहकृष्टियोंके आयामको देखते हुए अपने आयामसे द्रव्यमाहात्म्यकी अपेक्षा असंख्यातगुणी थी वैसे ही ये सूक्ष्मसाम्परायिककष्टियां भी क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टि के बिना शेषसंग्रहकष्टियोंके कृष्टिकरणकाल में समुपलब्ध आयामसे संख्यातगुणे पायामवाली जानना चाहिए, क्योंकि मोहनीयकर्मका सर्वद्रव्य इसके आधाररूपसे ही परिणमन करनेवाला है अथवा जसे क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टि अपूर्वस्पर्धकोंके अधस्तनभागमें अनन्तगुणीहीन की गई थी वैसे ही यह सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि भी लोभकी तृतीयबादरकृष्टिके अधस्तनभागमें अनन्तगुणीहीन की जाती है अथवा जिस प्रकार क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि जघन्यकुष्टिसे लगाकर उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त अनन्तगुणी होती गई थी, उसीप्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी अपनी जघन्यवृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त अनन्तगुणो होती जाती है । इसीलिए किसी भी कृष्टिके साथ सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिको समानता त बताकर क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि के साथ बतलाई गई है'।
'कोहस्स पढमकिट्टी कोहे छुद्धे दु माणपढमं च । माणे छुछ मायापमं मायाए संछुद्ध ॥१७६॥५६७।। लोहस्स पढमकिट्टी आदिमसमयकदसुहुमकिट्टीय। अहियकमापंचपदा सगसंखेज्जदिमभागेण ॥१७७||जुम्म॥५६८॥
अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां सबसे कम हैं (क्योंकि उनके आयामका प्रमाण है।) क्रोधके संक्रमित होतेपर अर्थात् क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिको मानको प्रथम संग्रहकृष्टि में प्रक्षिप्त करनेपर मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि की अन्तर
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१६६ । २. क. पा० सुत्त पृष्ट ८६३ सूत्र १२४८ से १२५३ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३६७-६८१