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क्षपणासार
[ गाथा १६५ ___ अर्थ-क्रोधवेदककाल के अनन्तरसमयमें मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथमस्थितिको करता है जिसका काल मानोदयकालके तृतीयभागमात्र है।
विशेषार्थ-क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टिके चरमसमयसै अनन्तरसमयमें मानको प्रथमकृष्टिके द्रव्यको द्वितीय स्थिति से अपकर्षित करके प्रथम स्थितिको करता है। क्रोधबेदककालसे विशेषहीन मानवेदकका सर्वकाल होता है। इस मानवेदकके सर्वकालके तृतीयभागप्रमाण मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदककाल होता है। मानको प्रथमकृष्टिवेदकके कालसे आवलिप्रमाण अधिक प्रथमस्थिति होती है । मानकी प्रथमकृष्टिको वेदन करनेवाला प्रथमसंग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियोंके असंख्यातबहुभाग प्रमाण अन्तरकृष्टियोंका वेदन करता है और उसोसमय उन कृष्टियोंसे विशेषहोन कृष्टियों को बांधता है, क्योंकि वेद्यमान कुष्टियों में ऊपर और नीचेको असंख्यातवेंभागप्रमाण कष्टियोंको छोड़कर मध्यवर्ती बहुभागप्रमाण कृष्टिरूपसे बन्ध होता है ऐसा पहले कहा जा चुका। क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टिके दोसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध और उच्छिष्टावलिके द्रव्यको छोड़कर शेष सर्वद्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिरूपसे परिणमन कर जाता है, क्योंकि आनुपूर्वी संक्रमणके वशसे मानमें संक्रमण होना अविरुद्ध है। क्रोवके प्रदेशाग्र मानरूप संक्रमित हो जानेपर जबतक संक्रमावलि व्यतीत नहीं हो जाती तबतक उनका उदय नहीं होता । क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके उपरिमभागमें अपूर्वकृष्टिरूप होकर परिणमन नहीं करता, किन्तु मानकी सदृश अनुभागवाली कृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टिरूपसे क्रोधका प्रदेशाग्न परिणमन करता है। उसमें भी थोड़ाद्रव्य तो पूर्व कृष्टिरूपसे तथा बहुतद्रव्य अपूर्वकृष्टिरूपसे परिणमन करता है। क्रोधकी तृतीयकृष्टि का द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकष्टि में परिणमन करने से मानकी प्रथमसंग्रहकष्टिका द्रव्य १६ गुणा हो जाता है, शेष दो कषायों (माया व लोभ) की प्रथमसंग्रहकृष्टियोंका बन्ध होता है'।
'कोहपढम व मारणो चरिमे अंतोमुहत्तपरिहीणो । दिणमासपएणवत्तं धंधं सत्तं तिसंजलणगाणं ॥१६५।।५५६॥
१. जयघवल मूल पृष्ठ २१८६ से २११० । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११६६-६६ । धवल पु०६ पृष्ठ ३६३ ।