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गाथा १३७ ]
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अर्थ – उदयको प्राप्त संग्रहकृष्टिका इस बातद्रव्यद्वारा मध्यमखंडादि किये जाते हैं यह विधान सभी समयों में होता है ।
झपणासार
विशेषार्थ :- जिस संग्रहकृष्टिका अनुभव करता है उसमें आयद्रव्यका अभाव है अतः संक्रमणद्रव्यसे मध्यमखंडादि नहीं होते हैं । इसलिए मध्यमखण्ड, उभयद्रव्य, विशेष इत्यादि वक्ष्यमाण विधान करने के लिये उस वेदनेरूप संग्रहकृष्टिका असंख्यातवांभागप्रमाण द्रव्य घातद्रव्यसे पृथक् रखकर अवशिष्ट घातद्रव्यको हो पूर्वोक्तप्रकार विशेषहीन क्रमसे एकगोपुच्छाकार द्वारा दिया जाता है। एक भामके आगे मध्यमखण्डादि विधान से द्रव्यदेने का कथन करेंगे। यह विधान सर्वसमय (कृष्टिगत उदय के समयों) में जानना । इसप्रकार घातद्रव्यसे एकमोपुच्छ हुआ, अब जो अन्यसंग्रहका द्रव्य विवक्षित संग्रह में द्रव्य आया उसको पूर्व में आयद्रव्य कहा था उसका नाम यहां संक्रमण द्रव्य कहा जाता है तथा जो द्रव्य नवोनसमयप्रबद्ध में बन्धकरके कृष्टिरूप होता है वह बन्धद्रव्य कहा जाता है । उसका विधान कहते हैं
कुछ संक्रमणद्रव्य और बन्धद्रव्यसे कुछ नवीन पूर्वकृष्टियों को करता है । इनमें संक्रमणद्रव्यके द्वारा तो उन संग्रहकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिके नीचे कुछ अपूर्वकृष्टियोंको करता है, इनको अघस्तनकृष्टि कहते हैं तथा उन संग्रहकृष्टियों को पूर्वअवयवकृष्टियोंके बीच-बीच में नवीन पूर्वकृष्टियों को करता है, इनका नाम अन्तरकृष्टि है । बन्धद्रव्य के द्वारा अवयवष्टियोंके बीच-बीचमें ही नवीनअपूर्वकृष्टियों को करता है, इनको भी अन्तरकृष्टि कहते हैं । कुछ संक्रमणद्रव्य और बन्धद्रव्यको पूर्वकृप्टियों में हो निक्षेपण करता है । इसीका विधान अगली गाथा में कहते हैं-
हेट्ठा कि द्विपदि संकमिदासंखभागमेतं तु ।
सेसा संखाभागा अंतर किहिस्स दव्वं तु ॥ १३७ ॥ ५२८ ॥
अर्थ – संक्रमणद्रव्यको असंख्यातका भाग देनेपर उसमेंसे एकभागमात्र द्रव्य तो अधस्तन कृष्टिनादिमें देता है अर्थात् इस एकभाग प्रमाण द्रव्यसे क्रोधकी प्रथम कृष्टिके अतिरिक्त शेष ११ संग्रहकृष्टियों के अधस्तन अपूर्वकृष्टि करता है तथा अवशेष असख्यात - बहुभागप्रमाण अन्तरकृष्टिसम्बन्धी द्रव्य है, इससे अन्तर कृष्टियों के अन्तर में अपूर्व कृष्टियों को करता है । इस गाथाका विशेष अर्थ जाननेके लिये गाथा १४३का विशेषार्थ देखना चाहिए ।