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क्षपणासार
[ गाथा १५५ अन्यकृष्टियों में नहीं, क्योंकि संक्रमण आतुपूर्वी रूपसे होता है। क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य स्वस्थानस्वरूप क्रोधको तृतीयकृष्टि में अपकर्षणभागहारसे संक्रमण करता है और परस्थानस्वरूप मानकी प्रथमसंग्रहकष्टि में अधःप्रवृत्तसंक्रमण द्वारा संक्रमण करता है। क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टि के प्रदेशाग्रको मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमित करता है, क्योंकि अन्यत्र संक्रमण असम्भव है। यहां भी अधःप्रवृत्तसक्रमण होता है ।
पढमो विदिये तदिये हेट्रिम पढमे च विदिगगो दिये। हेट्ठिमपडमे सदियो हेट्ठिमपढमे च संकमदि ॥१५५ ।।५४६॥
अर्थ-विवक्षित कषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य तो अपनी द्वितीय, तृतीय और अधस्तनवर्ती कषायको प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है, द्वितीय संग्रहकृष्टिका (विधक्षितकषायकी) द्रव्य अपनी तृतीय व अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमण करता है तथा (विवक्षितकषायकी) तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य अधस्त नवर्ती कषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में हो संक्रमण करता है। [नोट--इस गाथाका सम्बन्ध गाथा १३१ से है]
विशेषार्थ--यहां जिस कषायका वेदन कर रहा है उस विवक्षित कषायके अनन्तर जिस कषायका वेदन करेगा उसे अधस्तन वर्ती कषाय कहा गया है। क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकष्टिके प्रदेशसमूहका क्रोधको तृतीय व मानकषायको प्रथम संग्रहकष्टि में संक्रमण करता है, क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही संक्रमित करता है । मानकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी द्वितीय-तृतीय व मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमित करता है, मानकषायको द्वितीयसंग्रहकष्टिके द्रव्यका मानको तृतीय व मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है और मानकषायकी सतीयसंग्रहकष्टि के द्रव्यको मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही संक्रमित करता है। मायाकषायको प्रयमसंग्रहकृष्टिके द्रव्यका संक्रमण मायाको द्वितोय-तृतीय व लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में होता है, माया कषायको द्वितीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य मायाको तृतीय व लोभ
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१८३ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४७ से ११५६ ५ धवल पु०६ पृष्ठ ३८६-६० ।