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सपणासाय
गापा १५६-५७]
[१३६ की प्रथमसंग्रहकष्टि में संक्रमण करता है तथा मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टि के द्रव्यको लोभ. की प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही संक्रमित करता है। लोभकषायकी प्रथम संग्रहकष्टिका द्रव्य लोभकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टि में संक्रमित करता है और लोभकी द्वितोयसंग्रहकृष्टि. के द्रव्यका संक्रमण लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टिमें करता है, (देखो गाथा १३१ की टोका) क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें भी दिया जाता है ।
यहां विवक्षित कषायके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एकभागमात्र द्रव्य स्वस्थानमें (अपनी ही अन्य संग्रहकृष्टिमें) संक्रमित करता है और परस्थानमै (अन्यकषायको प्रथमसंग्रहकृष्टि में) विवक्षितकषायके द्रव्यको अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देकर एकभागमात्र द्रव्यका संक्रमण करता है।
कोहस्त पढमकिट्टी सुराणोत्तिण तस्स अस्थि संकमणं । लोभंतिमकिटिस्स य णस्थि पडिस्थावणणादो ॥१५६॥५४७॥
अर्थ-क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि तो शून्य हो गई (नास्तिरूप हो गई) अतः + उसका संक्रमण नहीं होता तथा लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका भी संक्रमण नहीं है, क्योंकि अतिस्थापनाका अभाव है।
विशेषार्थ-इसप्रकार क्रोधकी प्रथम व लोभको तृतीयसंग्रहकष्टि बिना शेष दशसंग्रहकष्टियोंके द्रव्य का संक्रमण करता है । वेदन करने योग्य द्वितीयसंग्रहकष्टि में
यद्रज्यका अभाव है अत: वहाँ घात (व्यय) द्रव्यको पूर्वष्टियों में पूर्वोक्तप्रकार दिया जाता है तथा लोभको तृतीयसंग्रह कृष्टि में व्ययद्रव्य नहीं, किन्तु आयद्रव्य ही है अतः दशसंग्रहकृष्टियों में संक्रमण द्रव्यको पूर्वोक्तप्रकार पूर्व-अपूर्वकृष्टियों में दिया जाता है।
'जस्स कसायरस जं किहि वेद यदि तस्स तं चेव । सेसाण कसायाणं पढमं किदि तु बंधदि हु॥१५७१५४८॥
अर्थ--जिसकषायको जिस संग्रहकृष्टिका वेदन करता है उस कषायकी उसो संग्रहकष्टिका बन्ध करता है तथा अन्यकषायोंकी प्रथमसंग्रहकष्टिका बन्ध करता है।
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१८३-८४ । २. क. पा० सूत्त पृष्ठ ८५७ सूत्र ११६० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६०।