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गाथा १५६ ]
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स्थान में आवलिका असंख्यातवां भाग प्रतिभागस्वरूप है । इसीप्रकार ऊपर भी स्वस्थानविशेष और परस्थानविशेष कहना चाहिए। उससे मायाकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको अंतर कृष्टियां विशेष अधिक हैं । मायाको द्वितीय संग्रह कृष्टिकी अंतर कृष्टियां विशेष अधिक हैं, मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टिय विशेषअधिक हैं । इससे लोमको प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक हैं, लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक हैं, उससे लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियों विशेषअधिक हैं उससे कोषको द्वितीय संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां संख्यात अर्थात् चौदहगुणी हैं, क्योंकि चारित्रमोहनीय कर्म के सम्पूर्णद्रव्यसे २४ कृष्टियां बनीं थीं । क्रोधको द्वितीयष्टिमें अपना मूल द्रव्य तो है, किन्तु इसमें क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य ३३ प्रविष्ट होने से इसका द्रव्य (+) २४ हो गया । अतः अन्तरकृष्टियां व प्रदेशाग्र भी चौदहगुणा हो गया' । "वेदिज्जादिट्टिदिए समयाहियमावलीय परिसेसे ।
ताहे जहरपुदीरणनरिमो पुणु वेदगो तस्स || १५६ ।। ५.५० ।।
अर्थ – बेद्यमान कृष्टिकी प्रथम स्थिति में समयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर जघन्य उदीरणा होती है और विवक्षित कृष्टिके वेदककालका चरससमय होता है ।
क्षपणासास
विशेषार्थ - वेद्यमान कृष्टिकी प्रथमस्थिति में आवलि - प्रत्यावलि शेष रहनेपर आगाल- प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है । यद्यपि कृष्टिकरणकाल के प्रारम्भ से ही मोहनीय कर्मके उत्कर्षणका अभाव हो जानेसे प्रथमस्थितिके प्रदेशात्रका द्वितीयस्थिति में संचार नहीं होता तथापि द्वितीय स्थिति से प्रदेशाग्रका अपकर्षण होकर प्रथमस्थिति में आगमन होता है अतः आगाल- प्रत्यागाल कहा जाता है । इसके पश्चात् एकसमयकम आवलिकाल व्यतीत हो जानेपर जब प्रथम स्थिति में एकसमयाधिक एकआवलिकाल शेष रह जाता है तब जघन्य उदीरणा होती है अर्थात् उदयावलिसे बाह्यस्थित निषेकके द्रव्यका अपकर्षणद्वारा उदयावलिमें निक्षेप होता है वही विवक्षितकृष्टिके वेदनका चरमसमय होता है ।
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१८५-८६ ।
२. क० पा० सुत पृष्ठ ८५० सूत्र १९७५-७६ | बबल पु० ६ पृष्ठ ३६१ ।
३. जयधवल मूल पृष्ठ २१८६ ।