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क्षपणासार
[गाथा १५२ ____ अर्थ- उसके (क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टि वेदनके चरमसमयके ) अनन्तरसमयमें क्रोधको द्वितीयसंग्रहकष्टि से प्रथमस्थिति करके क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है। उस समय क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी आवलिप्रमाण प्रथमस्थितिका द्रव्य और दोसमयकम दोआवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध शेष रह जाता है और उसी काल में कोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य १४ गुणा हो जाता है।
विशेषार्थ-जब प्रथम संग्रहकष्टिको पूर्वोक्त प्रथमस्थिति में उच्छिष्टालिकाल शेष रह जाता है उससमय द्वितीयस्थिति में स्थित क्रोधको द्वितीयकष्टिके प्रदेशात्रों को अपकर्षित करके उदयादि गुणश्रेणीके द्वारा द्वितीयसंग्रह कृष्टिके वेदककालसे आवलि. अधिककाल द्वारा प्रयमस्थितिको करता है । क्रोधकी द्वितोयसंग्रहकृष्टि में से अपकर्षणकरके प्रथमस्थितिको करनेवालेके उससमय दोसमयकम दोआवलि प्रमाण नवकसमयप्रबद्धरूप प्रदेशान और उच्छिष्टावलिप्रमाण प्रदेशानको छोड़कर क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि के शेष समस्त प्रदेशाग्र क्रोधको द्वितीय कृष्टिरूप संक्रमण कर जाते हैं। क्रोधको द्वितीयकृष्टिसे प्रथमष्टि तेरहगुणी थी, क्योंकि प्रथमसंग्रह कुष्टिमें नोकषायका भी द्रव्य था। प्रथमसंग्रहकष्टिका द्रव्य द्वितीयसंग्रहकष्टिके नीचे अनन्तगुणहीन परिणमन करके अपूर्वकृष्टिरूप होकर प्रवृत्त करता है, उससमय शेष पृथक् पृथक् संग्रहकष्टिके द्रव्यसे इसका द्रव्य १४ गुणा हो जाता है, क्योंकि प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य इस द्वितीयकृष्टि रूप संक्रमित होगया है । नक्कबन्ध और उच्छिष्टावलिके प्रदेशान यथाक्रम प्रतिसमय दूसरीकृष्टिमें संक्रमण करते हैं, उसोसमय क्रोधको द्वितीयकृष्टि का वेदक होता है।
पढमादिसंगहाणं घरिमे फालिं तु विदियपहुदीणं । हेट्ठा सव्वं देदि हु मउझे पुज्वं व इगिभागं ॥१५२॥ ५४३।।
अर्थ- प्रथमादि संग्रहकष्टियोंके अन्तिमसमयमें जो संक्रमणद्रव्यरूप फालि है उसका (बहुभाग) द्रव्य तो द्वितीयादि संग्रहकृष्टियोंके नोचे सर्वत्र देता है और एकमागरूप द्रव्य पूर्ववत् मध्य में देता है ।
विशेषार्थ---जिस संग्रहकष्टिको भोगता है उसका नब कसमयप्रबद्धविना सर्वद्रव्य सर्वसंक्रमणरूप है और वही अन्तिमफालि है, इसको अनंतर समयमें भोगी जानेवाली
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१८१-८२ । २. इस गाथाका विषय जयधवल मूलमें नहीं है।