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सपणासार
गाथा १४१-१४२]
[ १२७ संखातीदगुणाणि य पल्लस्सादिमपदाणि गंतूण । एक्केस्कबंधकिट्टी किट्टीणं अंतरे होदि ॥१४१॥५३२॥
अर्थ-क्रोधादि चारकषायों की प्रथमसंग्रहकृष्टिरूप चारस्थानों में बन्धद्रव्यसे अपूर्वकृष्टिको करता है । संक्रमणद्रव्यसे पहले ग्यारहस्थानों में कृष्टि रचना कही गई है । बन्धद्रव्यसे होनेवालो अपूर्वकृष्टियोंसे संक्रमणद्रव्यके द्वारा उत्पन्न कृष्टियां फ्ल्यके प्रसंख्यातवेंभागगुणो हैं। असंख्यातपल्पके प्रथमवर्गमूल जाकर एक-एक अपूर्वकृष्टि बन्घती है यही कृष्टिगत अन्तर है।
सिमेणार्थ --- बन्धहम समानद्धप्रमाण है, उससे संक्रमणद्रव्य प्रसंख्यातगुणा है । "कृष्टिद्रव्यके अनुसार कष्टियां उत्पन्न होतो हैं" इस न्यायके अनुसार बध्यमान प्रदेशाग्रसे थोड़ो (स्तोक) अपूर्वष्टियां रची जातो हैं, क्योंकि डेढ़गुणहानि समयप्रबद्धप्रमाण सत्त्वद्रव्य के असंख्यातवेंभाग संक्रम्यमाण द्रव्य है। यह संक्रम्यमाण प्रदेशाग्र बध्यमान प्रदेशाग्नसे पल्यके असंख्यातभागगुणा है । बध्यमानप्रदेशानसे जो अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं वे चारों हो प्रथम संग्रहकष्टि में से प्रत्येक संग्रहकृष्टिकी अवयवकृष्टियोंके अन्तरालों में निर्वतित की जाती हैं, किन्तु प्रथमआदि असंख्यात पल्योपमके प्रथमवर्गमूलप्रमाणकृष्टि अन्तरालों को लांघकर आगे कृष्टि अन्तरालमें प्रथमअपूर्वष्टि रची जाती है । पुनः असंख्यातकृष्टि अन्तरालों उलंघकर द्वितीय अपूर्वकृष्टि रचो जाती है । इसप्रकार असंख्यातपल्योपमके प्रयमवर्गमूलप्रमाण असंख्यातकृष्टि अन्तरालों को छोड़-छोड़. कर तृतीय, चतुर्थादि अपूर्वकृष्टिको रचना होती है । यह कम तबतक चला जाता है जबतक अन्तिमअपूर्वकृष्टि निष्पन्न नहीं होती है ।
दिज्जदि अणंतभागेणूणकमं बंधगे य गंतगुणं । तगणंतरे गतगुणणं तत्तोणतभागूणं ॥१४२॥५३३॥
अर्थ-बध्यमानद्रव्य पहले अनन्तवेंभागहीन क्रमसे दिया जाता है पुनः अनन्त. गुणा द्रव्य दिया जाता है उसके अनन्तर अनन्तगुगाहोन दिया जाता है तदनन्तर अनंतभागहीन द्रव्य क्रमसे दिया जाता है ।
१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८५२ सूत्र १०६२-६३ व १०९५, १०६६, ११०१ से ११०४ तक । धवल
पु० ६ पृष्ठ ३८५.३६६ । जयधवल पूल ए २१६६ से २१७२ तक ।