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क्षपणासार
[गाथा १२८-१२६ बन्ध रूप जो अन्तिमष्टि थी उससे लेकर नाचं उत्तरसमयमें जो अनुभय कृष्टि हुई हैं वे विशेष अधिक हैं। इनके नीचे विवक्षितसमय में होनेवालो केबल उदयरूपकृष्टि इससे विशेषअधिक हैं । इसप्रकार ये चारस्थान तो पूर्वसमयमें अधस्तन अतुभयआदिकृष्टि का जो प्रमाण था उससे असंख्यातगुणे कम हैं। उदयष्टियोंसे पूर्वसमयमें जो ऊपरको उदयकृष्टि थीं उनमें स्तोक अनुभागवाली जो आदिको जघन्यकष्टि थी उसीके समान कृष्टि से लेकर उत्तरसमयमें जो सर्व अनुभयष्टियां हुई वे असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि पूर्वसमय में ऊपरकी अनुभयष्टियों का जो प्रमाण था उसके असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टि पूर्वसमयसम्बन्धी ऊपरकी जघन्य उदय कृष्टिसे नीचे उत्तरोत्तर समयमें ऊपरकी जघन्य अनुभयकृष्टि होती हैं । इससे पूर्वसमयसम्बन्धी ऊपरको उदयकृष्टियोंके प्रमाणके असंख्यात उभागमात्र कृष्टि नीचे उतरनेपर इस विवक्षितसमयमें ऊपरको जघन्य उदयकृष्टि होती है। अनुभयकृष्टियों के प्रमाणसे बंध व उदययुक्त मध्यवर्ती उभयकृष्टियो असंख्यात गुणी हैं । इसप्रकार द्वितीयादि समयों में कृष्टियोंका अल्पबहुत्व जानता।
पुविल्लबंधजेट्ठा हेट्ठासंखेज्जभागमोद रिय । संपडिगो चरिमोदयवरमवरं अणुभयाणं च ॥१२८॥५१६॥
प्रयं-पूर्वसमयसम्बन्धी बन्धकी उत्कृष्ट (चरम) कृष्टिसे लेकर पूर्वसमयसम्बन्धी उभयष्टियोंके असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियां नीचे उतरकर वर्तमानमें उत्तरसमयसम्बन्धी केवल उदयरूप अन्तिमकृष्टि उत्कृष्ट कृष्टि होती है और इसके अनन्तर ऊपर अनुभयंकृष्टि की जघन्यकृष्टि पाई जाती है । उत्कृष्ट उदयकुष्टिसे नीचे पूर्वसमयसम्बन्धी उदयष्टिके असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टि नीचे उतरकर वर्तमानमै उदयको जघन्य कृष्टि होती है, उसके अनन्तर नीचे उभयकृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्टकृष्टि होती है । ऐसा ही विधान उपरिम कृष्टियों में भी जानना ।।
हेट्ठिमणुभयवरादो असंखबहुभागमेत्तमोदरिय । संपडिबंधजहएणं उदयुक्कस्सं च होदित्ति ॥१२६।।५२०॥
अर्थ-पूर्वसमयसंबंधी अनुभय कृष्टिकी उत्कृष्ट (चरम) कृष्टिसे पूर्वसमयसंबंधी अनुभय कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण कृष्टि नीचे उतरकर संप्रति बन्धकृष्टिकी जघन्यकृष्टि होती है उसके अनन्तर नीचेकी केवल उदयरूप उदय कृष्टियोंको उत्कृष्टकृष्टि है, उससे लेकर पूर्वसमयसम्बन्धो उदयकृष्टियोंके असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टि