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गाथा १२२ क्षपपासा
[११३ कर दोआवलि प्रमाण न बकसमयप्रबद्ध हैं वे देशधाति है तथा उनका वह अनुभागसत्त्व स्पर्धकस्वरूप है।
विशेषार्थ-रोघष षायकी उच्छिष्टालिका अनुभागसत्त्य तो सर्वधाती है, क्योंकि एक समयकम आवलिप्रमाण ऋोधके निषेक उदयावलिको प्राप्त हुए हैं। इनमें पूर्वअनुभागसत्त्व लता व क्षारके समान शक्तिबाला है सो इसी शक्तिकी अपेक्षा यहाँ सर्वघाती कहा है । शौलादि की समानताकी अपेक्षा सर्वघाती नहीं कहा गया है सो ये निषेक उदयकाल में कृष्टिरूप परिणमन करके वर्तमानसमयमे उदय प्राने योग्य निषेकोंमें उदय रूपहोकर निर्जराको प्राप्त होते हैं। यहां आबलि में एकसमयकम कहा है वह इसलिए कहा है कि उच्छिष्टालिका प्रथमनिषेक वर्तमानसमय में कृष्टिरूप परिणमन करने से परमुखरूप होकर उदय में आता है । सज्वलन चतुष्क,के दोसमयकम दो प्रावलिमात्र अवशिष्ट नवकसम यप्रबद्ध में देश घाति शक्ति से युक्त अनुभाग है, क्योंकि कष्टिकरणकालमें स्पर्धकरूप शक्तिसे युक्त जो अनुभाग बघता है वह दोसमयकम दोआवलिकालमें कृष्टिरूप परिणमनकरके सत्तासे नाशको प्राप्त होगा। यहां अवशिष्ट रहे नबकबन्ध और क्रोधकषायकी उच्छिष्टावलिप्रमाण निषेकोंका स्वरूप तो इसप्रकार जानना कि कृष्टिकरणकालक चरमसमयमें हो ये सर्वनिषेक कृष्टिरूप परिणमन करते हैं।
लोहादो कोहादो कारउ वेदउ हवे किट्टी ।
आदिमसंगह किट्टी वेद यदि ण विदीय तिदियं च ॥१२२॥५१३॥
अर्थ--कृष्टिकारक तो लोभसे लेकर क्रमवाले हैं और कृष्टिवेदन क्रोषसे लेकर क्रमवाले हैं। यहां पहले क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि का ही अनुभव करता है द्वितीयतृतीयसंग्रहवृष्टि का अनुभव नहीं करता है ।
विशेषार्थ-कृष्टिकरणमें तो सर्वप्रथम लोभको फिर मायाकी पश्चात् मानकी और बादमें क्रोधकी, इसक्रमसे कृष्टियां कहीं थीं, किन्तु यहां कृष्टिबेदनकाल में पहले क्रोधको फिर मानकी पश्चात् मायाको और बादमें लोभकी कृष्टियों का अनुभव होता है । कृष्टिकरणमें जिसको तृतीयसंग्रहकृष्टि कही है उसको कष्टिवेदन के समय प्रथमकृष्टि और जिसको कृष्टिकरणमें प्रथमकृष्टि कही है उसको कृष्टिवेदनमें तृतीयष्टि
१. जयधवल मूल पृष्ठ २०६६ ।