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"प्रथ कृष्टिवेदनाधिकार" 'से काले किट्टीमो अणुहदि हु चारिमासमडवस्सं । बंधो संतं मोहे पुवालावं तु सेसाणं ॥१२०॥५११॥
अर्थ-कृष्टिकरणकालके अनन्तरसमयमें अपने कृष्टि वेदक काल में कृष्टियों के उदयका अनुभव करता है । द्वितीयस्थितिके निधेकों में रहती हुई कृष्टियोंको अपकर्षणकरके प्रथमस्थिति में उक्ष्यावलिके निषेकोंमें प्रास कर के भोगता है और उस भोगनेका नाम ही वेदना है । उससमय प्रथमस्थिति आवलिमात्र शेष रह जाती है, किन्तु आबलिका प्रयमनिषेक स्तुविकसंक्रमण द्वारा कृष्टिरूपसे उदय में आता है । उसकाल (उदयकाल) के प्रथमसमय चारसंज्वलनरूप मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त अधिक चारमासको घटकर चारमास हो जाता है और स्थितिसत्त्व आठवर्षमात्र है। यह स्थितिसत्त्व पहले अन्तर्मुहूर्त अधिक आठवर्ष था सो अन्तमुहूर्त कमकरके इतना रह गया। अवशेष कौका भी स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व यद्यपि कम हुआ है तथापि पालापद्वारा पूर्वोक्तप्रकार तीनघातियाकर्मों का स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व संख्यातहजार. वर्ष एवं वेदनीय, नाम व गोत्रकका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्ष और स्थितिसत्त्व असंख्यातहजारवर्ष जिसप्रकार कृष्टिकरणकालके अन्तिमसमयमें कहा था वैसे ही यहां भी जानना।
'ताहे कोहुच्छि8 सव्वं घादी हु देसघादी हु।
दोसमऊणदुआवलिणवक ते फलयगदाभो ॥१२१॥५१२॥
अर्थ-संज्वलन क्रोधका जो अनुभागसत्त्व उदयावलिके भीतर उच्छिष्टावलिरूपसे अवशिष्ट अवस्थित है वह सत्व सर्वघाति है और संज्वलनचतुष्कके जो दोसमय
१. क. पा. सुस पृष्ठ ८०४ सूत्र ६७६ से ६८५ । ५० पु० ६ पृष्ठ ३८३ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६८६-६८७ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८३ ।