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क्षपणासार
गाथा ७५ ]
[६६ शङ्काः---पूर्वस्पर्धकों के अनुभागको अपवर्तनके द्वारा अनन्तगुणाहीन करके यदि अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं तो उनको कृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गई ?
समाधान:--जिनकी उत्तरोत्तर वर्गणाओं में अविभागप्रतिच्छेद क्रमसे विशेष. अधिक या हीन होते हैं तो उनकी स्पर्धक संज्ञा है, किन्तु कृष्टियोंमें अनन्तगुणो वृद्धिहानिका क्रम होता है । अनन्त गुणी वृद्धि व हानिका उत्तरोत्तरकम अपूर्वस्पर्धकों में नहीं पाया जाता अतः उनकी कृष्टिसंज्ञा सम्भव नहीं है।
अनुभागस्पर्धक दो प्रकारके हैं-पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक । पूर्वस्पर्धक वर्धमानक्रमसे हैं अर्थात् प्रथमपूर्वस्पर्धकसे द्वितीयस्पर्धक, अनुभाग बढ़ता हुआ है, द्वितीयसे तृतीयस्पर्धकमें और तृतीयसे चतुर्थ में अनुभाग वृद्धि रूप है। अपूर्वस्पर्धकोंमें अनुभाग होयमानक्रमसे हैं। प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे द्वितीयमें, द्वितोयसे तृतोय में अनुभाग हीयमान है, यही क्रम सर्व अपूर्वस्पर्धकोंमें जानना चाहिए ।
सर्व अक्षपक जीवों के सभी कर्मों के देशघातिस्पर्धकोंकी आदिवर्गणा तुल्य है । सर्वघातियोंमें भी केवल मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सर्वघातिकर्मों को आदिवर्गणा तुल्य है, इन्हींका नाम पूर्वस्पर्धक है। तत्पश्चात् वही प्रथमसमयवर्ती अवेदी जीव उन पूर्वस्पर्धकोंसे चारों संज्वलनकषायों के अपूर्वस्पर्धकोंको करता है उस समय क्षपकके जो डेढ़गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध हैं और पूर्वस्पर्धकों में यथायोग्य विभागके अनुसार अवस्थित हैं, उन्हें उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारके प्रतिभागद्वारा असंख्यातवेंभागका अपकर्षणकरके अपूर्वस्पर्धक बनानेके लिये ग्रहण करता है । पुनः उन्हें अनन्त गुणितहानिके द्वारा हीन. शक्तिवाले करके पूर्वस्पर्धकों के प्रथमदेशघातिस्पर्धाकों के नीचे उनके अनन्तवेंभागमें अपूर्वस्पर्धक बनाता है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रथमदेशघातिस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें जितने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं उन अविभाग प्रतिच्छेदों के अनन्तवेंभागमात्र ही अविभागप्रतिच्छेद अपूर्वस्पर्धककी सबसे अन्तिम (आदि ?) वर्गणा में होते हैं । इन अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण अनन्त है जो अभव्योंसे अनन्त गुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है।
१. ज.ध. मूल पृष्ठ २०२५ ! २. वर्धमानं मतं पूर्व हीयमानमपूर्वकं । स्पर्धक द्विविधं ज्ञेयं स्पर्धकक्रमकोविदः ।। (अमितगति
पंचसंग्रह ११४६) ३. जयधवल मूल पृ० २०२५-२६ ।