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क्षपणासार
[ माथा १०० विदियतिभागो किट्टीकरगाद्धा किट्टिवेदगद्धा हु । तदियतिभागो किट्टीकरणो हयक सणकरणं च ॥१०॥४६१॥
अर्थ--(छह नोकषायोंको संज्वलनक्रोध में संक्रमण कर के नाश करनेके अनन्तरवर्ती समयसे लेकर अन्तमुंहतंमात्र जो क्रोधवेदककाल है उसमें संख्यातका भाग देकर बहुभागके समानरूपसे तीन भाग करते हैं तथा अवशेष एकभागको संख्यातका भाग देकर उनमें से बहुभागको प्रथम त्रिभागमें एवं अवशिष्ट एकभागमें संख्यातका भाग देकर बहुभाग दूसरे त्रिभागमें तथा अवशेष एक भागको तृतीय विभाग में जोड़ते है ।) इसप्रकार करते हुए प्रथमत्रिभाग कुछ अधिक हुआ और वह अपूर्वस्पर्धक सहित अश्वकर्णकरणका काल है सो पहल हो ही गया। द्वितीयत्रिभाग किंचित् ऊन है सो चार संज्वलनकषायोंका कृष्टि करनेका काल है जो अब प्रवृत्तमान है एवं तृतीयत्रिभाग किंचित ऊन है जो कि क्रोधकृष्टिका वेदककाल है जो आगे प्रवृत्तमान होगा। इस कृष्टिकरण काल में भी प्रश्वकर्ण करण पाया जाता है, क्योंकि यहां भी अश्वकर्णके आकाररूप 'संज्वलनकषायोंका अनृभागसत्त्व या अनुभागकाण्डक होता है अत: यहां कृष्टिसहित अश्वकर्णकरण पाया जाता है ।
विशेषार्थ-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छह नोकषायरूप कर्मप्रकृतियों का संज्वलन क्रोधमें संक्रमण होकर नष्ट हो जानेपर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण क्रोध वेदककाल होता है । उसके तीन भाग होते हैं; उन तीन भागों में से प्रयमभाग सबसे बड़ा होता है, द्वितीयभाग उस प्रथमभागसे विशेषहीन होता है और तृतीयभाग इस दुसरे भागसे भी हीन कालवाला होता है । वह इसप्रकार है--क्रोध वेदककालको संख्यातसे भाजितकर उसमें से बहुभागके तीन समखण्ड होते हैं । क्रोषवेदककाल जो संख्यातवां एकभाग शेष रहा उसको पुनः संख्यातसे भागदेकर बहुभाग प्रथम विभागमें मिलानेपर प्रथमभागसम्बन्धी कालका प्रमाण होता है, शेष एक भागको पुनः संख्यातसे भागदेकर बहुभाग द्वितीयभागमें मिलाने से द्वितीय भागके कालका प्रमाण होता है। शेष एकभागको तृतीयभागमें मिलानेपर तीसरेभागके कालका प्रमाण होता है | इस हीन क्रमसे क्रोषवेदककालके तीनखण्ड हैं। यद्यपि स्थूलरूपसे प्रत्येकभागको त्रिभाग कहा गया है तथापि वे क्रोधवेदककालके त्रिभागसे कुछ हीन या अधिक हैं। उन तीन भागों में से प्रथमभाग अश्वकर्ण काल है, द्वितीयभाग कृष्टिकरणकाल है और तृतीयभाग कुष्टिवेदककाल हैं।