________________
!
गाथा १०६-११०
क्षपरणासार
[ १०५
द्वितीयसंग्रहकुष्टसम्बन्धी प्रथम कृष्टि में अनुभाग है | यहांसे पहले अभ्यप्रकार गुणकार था अतः वहां पर्यन्त प्रथम संग्रहकृष्टिकी ही कृष्टियां हैं। यहां अन्यप्रकार गुणकार हुआ इसलिए यहांसे आगे द्वितीय संग्रह कृष्टि वहीं इसीप्रकार अन्तपर्यन्स विधान जानना । इसीप्रकार (अंकसंदृष्टि कथन के समान ) यथार्थ कथन ( अर्थ संदृष्टिरूप कथन ) भी जानना, किन्तु ( २ ) के स्थानपर अनन्त और संग्रह कृष्टियों में जो चार अन्तरकृष्टियो कही उसके स्थानपर अनन्त अनन्तरकृष्टियां जानना । इसप्रकार अनुभाग अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा कृष्टियोंका कथन किया ।
जेटुकि हिस्स ।
तेण भागेण ॥ १०६ ॥ ५०० ॥
'लोहस्स अवर किट्टिगदव्यादो को दव्वोत्ति य हीराकमं देदि लोहस्स अवर किट्टिगदन्वादो कोधजेट किट्टिस्स । दव्वं तु होदि होणं असंखभागेण जोगे । ११० । जुम्मं ॥ ५.०१ ।।
अर्थ - लोभकषायकी जघन्यकृष्टि से लेकर क्रोधकषायकी उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त द्रव्य अनन्त भागहीन क्रमसे दिया जाता है तथा लोभकषायकी जघन्यकृष्टि के द्रव्य से क्रोध कषायकी उत्कृष्ट कृष्टिका द्रव्य अनन्तवें भागहीन है ।
विशेषार्थ - प्रथमसमयवर्ती कृष्टिकारक पूर्व-अपूर्वस्पर्धकों से असंख्यातवें भाग प्रदेशाग्रका व्यपकर्षणकरके पुनः समस्त अपकर्षित द्रव्य के प्रसंख्यात वैभाग द्रव्यको कृष्टियोंमें विक्षिप्त करता है । इसप्रकार निक्षिप्तमान लोभकषायकी जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशाग्रको देता है । द्वितीयष्टि में एकवगंणा विशेष ( चय) से होन द्रव्य देता है तथा इससे आगे-आगेकी उपरितन कूष्टियों में यथाक्रम से अनन्तयां भागविशेष ( चय) से हीन द्रव्य कोषकषायकी उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त देता है । इस विधानसे अन्तरोपनिधाकी अपेक्षा एकएकवर्गणा विशेषसे हीन द्रव्य उपरिम सर्व कृष्टियों में सर्वोत्कृष्ट अर्थात् कोषकषायकी चरम कृष्टिपर्यन्त देता है, किन्तु संग्रहकृष्टियोंकी अन्तरालवर्ती कृष्टियों को उल्लंघ जाता है, क्योंकि इस अध्वानमें एक अन्तरसे दूसरे अन्तर में 'अनन्तवेंभाग से होन' अन्य कोई
१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८० १ सूत्र ६४३ से ६४७ तक ॥
२. "हीणं असंखभागेए" इत्यस्य स्थाने "हीरणमांत भागेण" इति पाठो (क० पा० सुत्त पृष्ठ ८० १ सूत्र ६४८ ) ।