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गाथा ६९-१
क्षपणासार विशेषार्थ--प्रथम अनुभागकाण्डक उल्कोर्ण होने के अन्तिमसमयसे अनन्तर अगले समयमें अनुभागसत्त्वमै विशेषता हो जाती है जो इस प्रकार है-संज्वलनलोभमें अनुभागसत्त्व स्तोक है, उससे संज्वलनमायामें अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है, उससे संज्वलनमानका अनुभागसत्व अनन्तगुणा है और उससे भो सल्बलनक्रोधका अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है । इससे आगे सम्पूर्ण अश्वकर्णकरणकाल में यही क्रम है।
'आदोलस्त य पढमे णिवत्तिदअपुब्बफड्डयाणि बहू । पडिसमयं पलिदोवममूलासंखेज्जभागभजियकमा।६११।४८२||
अर्थ-आंदोल अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें निर्वतित अपूर्वस्पर्धक बहुत हैं उसके आगे प्रतिसमय पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवेंभागसे भाजित क्रमसे हैं ।
विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें जो अपूर्वस्पर्धक रचे गए हैं उनकी संख्या बहुत है, द्वितीयसमय में जो नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे गए हैं उनकी संख्या असंख्यातगुणीहीन है । प्रथमसमयमें रचे गए अपूर्वस्पर्शकोंको संख्याको पल्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेंभागसे भाजित करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतने दूसरे समय में रचित नवोन त्यपूर्वस्पर्धक हैं । द्वितीय समयके अपूर्वस्पर्धाकों को पल्यके प्रयमवर्गमूलके असंख्यातवेंभागसे भाजित करनेपर जो प्राप्त हो तत्प्रमाण तृतीयसमय में नवोन अपूर्व स्पर्धक रचे जाते हैं । इसप्रकार अश्वकर्णकरणकालमें प्रतिसमय जो नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं वे क्रमसे असंख्यातगुणहीन होते जाते हैं। असख्यातगुणाहोन प्राप्त करने के लिए पर्वाके अपूर्णस्पर्धकोंको पल्योपमके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातशेंभागसे भाजित किया जाता है।
"आदोलस्त य चरिमे अपुवादिमवग्गणाविभागादो । दो चढिमादीणादी चढिदवा मेत्तणंतगुणा ॥६२|४८३॥
अर्थ--आंदोलकरण अर्थात् अश्वकर्णकरणकालके अन्तिमसमयमें प्रथम स्पर्धक की आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदसे द्वितीयादि स्पर्शकोंकी आदिवर्गणाके अविभाग
१. जयश्चबल मूल पृष्ठ २०४० । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ सूत्र ५४६ से ५५३ । धवल पु०६१४ ३७२ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०४१। ४. क. पा. सुत्त पधु ७६६ सूत्र ५५४ से ५५७ तक । धवल पु० ६ प ३७२-७३ ।